DEIEd Hindi Devnagri Lipi Study Material Notes Previous Question Answer
देवनागरी लिपि में विभिन्न तत्वों का ज्ञान
देवनागरी लिपि (अंग्रेजीः क्मअंदंहंतप बतपचे) एक ऐसी लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएँ लिखी जाती है। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कॉक कश्मीरी, नेपाली, गाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसे नागरी लिपि भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, जिपुरिया मणिपुरी, रोमन और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती है।हिन्दी भारतीय गणराज की राजकीय और मध्य भारतीय-आर्य भाषा है। सन 1998 में। मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकडे मिलते थे, उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
देवनागरी लिपि की विशेषताएँ।
यह भारत में सर्वाधिक प्रचलित लिपि जिसमें संस्कृत, हिन्दी और मराठी भाषाएँ लिखी जाती हैं। इस शब्द का सबसे पहला उल्लेख 453 ई. में जैन ग्रंथों में मिलता है। ‘नागरी’ नाम के संबंध। में मतैक्य नहीं है। कुछ लोग इसका कारण नगरों में प्रयोग को बताते हैं। यह अपने आरंभिक रूप में ब्राह्मी लिपि के नाम से जानी जाती थी। इसका वर्तमान रूप नवी-दसवीं शताब्दी से मिलने । लगता है।
| भाषा विज्ञान की शब्दावली में यह ‘अक्षरात्मक’ लिपि कहलाती है। यह विश्व में प्रचलित सभी लिपियों की अपेक्षा अधिक पूर्णतर है। इसके लिखित और उच्चरित रूप में कोई अंतर नहीं। पड़ता है। प्रत्येक ध्वनि संकेत यथावत लिखा जाता है।
इसमें कुल 52 अक्षर हैं, जिसमें 14 स्वर और 38 व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था, विन्यास भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर काशी में प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं, पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के हो समान हैं- क्योंकि वो सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से | सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है।
देवनागरी लिपि का इतिहास | उत्तर भारत में नागरी लिपि के लेख 8-9वीं शताब्दी से मिलने लग जाते हैं। टया में इसके लेख कुछ पहले से मिलते हैं। वहाँ यह ‘नंदिनागरी’ कहलाती थी। ‘नागरी’ नाम के व्युत्पति एवं अर्थ के बारे में पुराविद एकमत नहीं हैं। ‘ललित-विस्तर’ की 64 लिपियों के
*नाग लिपि’ नाम मिलता है। किन्तु ‘ललित–विस्तर’ (दूसरी शताब्दी ई.) की ‘नाग-लिपि के पर नागरी लिपि का नामकरण संभव नहीं जान पड़ता। एक अन्य न के अनुसार गुजरात र ब्राह्मण द्वारा सर्वप्रथम उपयोग किये जाने के कारण इसका आम नागरी पड़ा। यह मत भी सुधार नहीं प्रतीत होता। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा कि, बाकी नगर तो केवल नगर ही हैं कि ft देवनगरी है, और वहाँ इसका प्रचार होने के कारण इस लिपि का नाम देवनागरी पड़ा। इस ५ को स्वीकार करने में अड़चने है। एक अन्य मत के अनुसार नगरों में प्रचलित होने के कारण माइ नागरी कहलाई। इस मत को कुछ हद तक स्वीकार किया जा सकता है। दक्षिण के विजयनगर जाओं के दानपत्रों की लिपि को नदिनागरी का नाम दिया गया है। यह भी संभव है कि नदिनगर, महाराष्ट्र की लिपि होने के कारण इसके लिए नागरी का नाम अस्तित्व में आया। पहल-पहल विजयनगर राज्य के लेखों में नागरी लिपि का व्यवहार देखने को मिलता है। बाद में जब उत्तर भारत में भी इसका प्रचार हुआ, तो ‘नंद’ की तरह यहाँ ‘देव’ शब्द इसके पहले जोड़ दिया गया होगा। को भी हो, अब तो यह नागरी या देवनागरी शब्द उत्तर भारत में 8वीं सदी से आज तक लिखे गये प्रायः सभी लेख की लिपि-शैलियों के लिए प्रयुक्त होता है। दसवीं शताब्दी में पंजाब और कश्मीर में प्रयुक्त शारदा लिपि नागरी की बहन थी, और बांग्ला लिपि को हम नागरी की पुत्री नहीं तो बहन मान सकते हैं। आज समस्त उत्तर भारत में और नेपाल में भी और संपूर्ण महाराष्ट्र में देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है
भारत के लिए देवनागरी का महत्व
भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि भारत की प्राय: सभी प्रमुख भाषाओं की (उर्दू और सिंधी को छेड़कर) लिपियां ब्राह्मी लिपि से ही उद्भूत हैं। देवनागरी, ब्राह्मी लिपि की सबसे व्यापक, विकसित और वैज्ञानिक लिपि है, जो भारतीय भाषाओं की सहोदरा लिपि होने के नाते इन सबके बीच स्वाभाविक रूप से संपर्क लिपि का कार्य कर सकती है। यदि हम इन भाषाओं के साहित्य को उनकी अपनी-अपनी लिपियों के अलावा एक समान लिपि देवनागरी लिपि में भी उपलब्ध करा दें, तो इन भाषाओं का साहित्य अन्य भाषाभाषिर्यों के लिए भी सुलभ हो सकेगा। नागरी लिपि इन भाषाओं के बीच सेतु का कार्य कर सकेगी।
इसी लिए आधुनिक युग के हमारे अग्रणी नेताओं, प्रबुद्ध विचारको और मनीषियों ने राष्ट्रीय एकता के लिए देवनागरी के प्रयोग पर बल दिया था। निश्चय ही ये सभी विचारक हिंदी क्षेत्रों के नहीं थे, अपितु इतर हिंदी प्रदेशों के ही थे। उनका मानना था कि भावात्मक एकता की दृष्टि से भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि का होना आवश्यक है और यह लिपि केवल देवनागरी ही हो सकती हैं। श्री केशववामन पेठे, राजा राममोहन राय, शारदाचरण मित्र (1848-1916) ने नागरी लिपि के महत्व को समझते हुए देश भर में इसके प्रयोग को बढ़ाने की आवाज उठयी थी।
आचार्य विनोबा भावे ने नागरी लिपि के महत्व को स्वीकार करते हुए यहां तक कहा था “हिंदुस्तान की एकता के लिए हिंदी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि सभी भाषाएं सिर्फ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियां
नहीं थे, अपित के लिए उठे, राजा राम चलें लेकिन साथ साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये। विनोबा जी “नागरी ही नहीं “नागरी भी चाहते थे। उन्हीं की सप्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई। जो भारत की एकमात्र ऐसी संस्था है, जो नागरी लिपि के प्रचार प्रसार में लगी है। 1961 में पं जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में सम्पन्न मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में भी यह सिफारश की गयी कि, “भारत की सभी भाषाओं के लिए एक लिपि अपनाना वांछनीय हैं। इतना ही नहीं, यह सब भाषाओं को जोड़ने वाली एक मजबूत कड़ी का काम करेगी और देश के एकीकरण में सहायक होगी। भारत की भाषायी स्थिति में यह जगह केवल देवनागरी ले सकती है। “16-17 जनवरी 1960 को बेंगलोर में आयोजित ‘ऑल इण्डिया देवनागरी कांग्रेस में श्री अनंतशयनम् आयंगर ने भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी को अपनाये जाने का समर्थन किया था।
लिपि का विकास
देवनागरी का विकास उत्तर भारतीय ऐतिहासिक गुप्त लिपि से हुआ, हालाकि अंतन. व्युत्पत्ति ब्राह्मी वर्णाक्षरों से हुई, जिससे सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का जन्म हुआ है। स शताब्दी से इसका उपयोग हो रहा है, लेकिन इसके परिपक्व स्वरूप का विकास 11वीं शता हुआ। उच्चरित ध्वनि संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति ‘भाषा’ कहलानी जबकि लिखित वर्ण संकेतों की सहायता से भाव या विचार की अभिव्यक्ति लिपि। भाषा अ होती है, जबकि लिपि दृश्य। भारत की सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से ही निकली है। ब्राह्मी लि का प्रयोग वैदिक आर्यों ने शुरू किया। ब्राह्मी लिपि का प्राचीनतम नमूना ऽर्वी सदी BC का है कि बौद्धकालीन है। गुप्तकाल के प्रारम्भ में ब्राह्मी के दो भेद हो गए, उत्तरी ब्राह्मी व दक्षिणी ब्राह्मी । दक्षिणी ब्राह्मी से तमिल लिपि/कलिंग लिपि, तेलुगु एवं कन्नड़ लिपि, ग्रंथ लिपि तमिलनाडु, मलयालम लिपि, का विकास हुआ।
नागरी लिपि का प्रयोग काल 8 -9र्वी सदी ई. से आरम्भ हुआ। 10 से 12वीं सदी के बीच इसी प्राचीन नागरी से उत्तरी भारत की अधिकांश आधुनिक लिपिर्यों का विकास हुआ। इसकी दी शाखाएँ मिली हैं, पश्चिमी व पूर्वी। पश्चिमी शाखा की सर्वप्रमुख प्रतिनिधि लिपि देवनागरी लिपि है।
हिन्दी भाषा की लिपि के रूप में विकास
देवनागरी लिपि को हिन्दी भाषा की अधिकृत लिपि बनने में बड़ी कठिनाठयों का सामना करना पड़ा है। अंग्रेजों की भाषा नीति फारसी की ओर अधिक झुकी हुई थी। इसीलिए हिन्दी को भी फारसी लिपि में लिखने का षड़यंत्र किया गया।
जॉन गिलक्राइस्ट- हिन्दी भाषा और फारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54) की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग के सर्वप्रथम अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं-दरबारी या फारसी शैली, हिन्दुस्तानी शैली व हिन्दवी शैली। वे फारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गुँवारू मानते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था, किन्तु उसमें अरबी-फारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
विलियम प्राइस- 1823 ई. में हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में विलियम प्राइस की नियुक्ति हुई। उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर हिन्दी, पर बल दिया। प्राइस ने गिलक्राइस्ट द्वारा जनित भाषा-सम्बन्धी भ्राँन्ति को दूर करने का प्रयास किया। लेकिन प्राइस के बाद कॉलेज की गतिविधियों में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। |
अदालत सम्बन्धी विज्ञप्ति (1837 ई.)-वर्ष 1830 ई. में अंग्रेज कम्पनी के द्वारा अदालतों में फारसी के साथ-साथ देशी भाषाओं को भी स्थान दिया गया। वास्तव में, इस विज्ञप्ति का पालन 1837 ई. में ही शुरू हो सका। इसके बाद बंगाल में बांग्ला भाषा और बांग्ला लिपि पचलित हुई। संयुक्त प्रान्त उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रान्त मध्य प्रदेश में भाषा के रूप में तो हिन्दी का प्रचलन हुआ, लेकिन लिपि के मामले में नागरी लिपि के स्थान पर उर्दू लिपि का प्रचार किया जाने लगा इसका मुख्य कारण अदालती अमलों की कृपा तो थी ही, साथ ही मुसलमानों ने भी धार्मिक आधा पर जी-जान से उर्दू का समर्थन किया और हिन्दी को कचहरी से ही नहीं शिक्षा से भी निका बाहर करने का आंदोलन चालू किया।
1857 के विद्रोह के बाद हिन्दू – मुसलमानों के पारस्परिक विरोध में ही सरकार अपनी सुरक्षा समझने अतः भाषा के क्षेत्र में उनकी नीति भेदभावपूर्ण हो गई। अंग्रेज विद्वानों के दो हो गए। दोनों ओर से पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गए।
* नागरी लिपि और हिन्दी तथा फारसी लिपि और उर्दू का अभिन्न सम्बन्ध हो गया। अत: दोनों के पक्ष-विपक्ष में काफी विवाद हुआ।
| राजा शिव प्रसाद सितारे-हिन्द’ का लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन (1868 ई.)-फारसी लिपि के |शन पर नागरी लिपि और हिन्दी भाषा के लिए पहला प्रयास राजा शिवप्रसाद का 1868 ई. में उनके लिपि सम्बन्धी प्रतिवेदन ‘मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ इंडिया से | आरम्भ हुआ।
जॉन शोर- एक अंग्रेज अधिकारी फ्रेडरिक जॉन शोर ने फारसी तथा अंग्रेजी दोनों भाषाओं के | प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त की थी और न्यायालय में हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी लिपि का समर्थन | किया था।
बंगाल के गवर्नर ऐशले के आदेश (1870 ई. व 1873 ई.)-वर्ष 1870 ई. में गवर्नर ऐशले ने देवनागरी के पक्ष में एक आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि फारसी- पूरित उर्दू नहीं | लिखी जाए। बल्कि ऐसी भाषा लिखी जाए जो एक कुलीन हिन्दुस्तानी फारसी से पूर्णतया अनभिज्ञ | रहने पर भी बोलता है। वर्ष 1873 ई. में बंगाल सरकार ने यह आदेश जारी किया कि पटना,
भागलपुर तथा छोटा नागपुर डिविजनों (संभागों) के न्यायलयों व कार्यालयों में सभी विज्ञप्तियाँ | तथा घोषणाएँ हिन्दी भाषा तथा देवनागरी लिपि में ही की जाएँ।
वर्ष 1881 ई. तक आते-आते उत्तर प्रदेश के पड़ोसी प्रान्तों बिहार, मध्य प्रदेश में नागरी लिपि और हिन्दी प्रयोग की सरकारी आज्ञा जारी हो गई तो उत्तर प्रदेश में नागरी आंदोलन को बड़ा नैतिक प्रोत्साहन मिला।
प्रचार की दृष्टि से वर्ष 1874 ई. में मेरठ में ‘नागरी प्रकाश’ पत्रिका प्रकाशित हुई। वर्ष 1881 ई. में ‘देवनागरी प्रचारक’ तथा 1888 ई. में ‘देवनागरी गजट’ पत्र प्रकाशित हुए।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नागरी आंदोलन को अभूतपूर्व शक्ति प्रदान की और वे इसके प्रतीक और नेता माने जाने लगे। उन्होंने 1882 में शिक्षा आयोग के प्रश्न-पत्र का जवाब देते हुए कहा- ‘सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग होता है। यही ऐसा देश है, जहाँ न तो अदालती भाषा शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।’ प्रताप नारायण मिश्र – पं. प्रताप नारायण मिश्र ने हिन्दी-हिन्दू-हिन्दूस्तान का नारा लगाना | शुरू कर दिया। 1893 ई. में अंग्रेज सरकार ने भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का प्रश्न खड़ा कर दिया। इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ।
नागरी प्रचारिणी सभा, काशी (स्थापना-1893 ई.) व मदन मोहन मालवीय- नागरी प्रचारिणी सभी सभा की स्थापना-वर्ष 1893 में नागरी प्रचार एवं हिन्दी भाषा के संर्वधन् के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की (स्थापना-1893ई.) की गई। सर्वप्रथम इस सभा ने कचहरी में नागरी लिपि का | प्रवेश कराना ही अपना मुख्य कर्तव्य निश्चित किया। सभा ने ‘नागरी कैरेक्टर’ नामक एक पुस्तक अंग्रेजी में तैयार की, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि की अनुपयुक्तता पर प्रकाश | डाला गया था। मालवीय के नेतृत्व में 17 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल द्वारा लेफ्टिनेंट गवर्नर एण्टोनी | मैकडानल को याचिका या मेमोरियल देना (1898 ई.)-मालवीय ने एक स्वतंत्र पुस्तिका ‘कोर्ट
कैरेक्टर एण्ड प्राइमरी एजुकेशन इन नार्थ-वेस्टर्न प्रोविन्सेज’ (1897 ई.) लिखी, जिसका बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। वर्ष 1898 ई. में प्रान्त के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर के काशी आने पर नागरी प्रचारिणी सभा का एक प्रभावशाली प्रतिनिधि मंडल मालवीय के नेतृत्व में उनसे मिला और हजारों हस्ताक्षरों से युक्त एक मेमोरियल उन्हें दिया। यह मालवीय जी का ही अथक प्रयास था,
कि 18 अप्रैल 1900 ई. को गवर्नर साहब ने
के समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह हीं था। इसमें हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नहीं वलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषी जनता के लिए इतना श्रेय तो है ही कि कचहरियों में स्थान दिला
विवादास्पद है। अधिकांश विद्वान् गुजरात के नागर ब्राह्मण से इसका
ये नागरी’ कहा गया है। अपने अस्तित्व में आने के तुरन्त बाद
जिसके परिणामस्वरूप अदालतों में नागरी को प्रवेश मिल सका।
इसीलिए अदालतों में नागरी के प्रवेश का श्रेय मालवीयजी को दिया जाता है।
इन तमाम प्रयत्नों का शुभ परिणाम यह हुआ कि 18 अप्रैल 1900 ई. को गवर्नर साहब ने फारसी के साथ नागरी को भी अदालतों/कचहरियों में समान अधिकार दे दिया। सरकार का यह प्रस्ताव हिन्दी के स्वाभिमान के लिए संतोषप्रद नहीं था। इसमें हिन्दी को अधिकारपूर्ण सम्मान नही दिया गया था। बल्कि हिन्दी के प्रति दया दिखलाई गई थी। केवल हिन्दी भाषा जनता के लिए संविधा का प्रबन्ध किया गया था। फिर भी, इसे इतना श्रेय तो है ही कि कचहरियों में स्थान दिला सका और यह मजबूत आधार प्रदान किया, जिसके बल पर वह 20वीं सदी में राष्ट्रलिपि के रूप में उभरकर सामने आ सकी।
देवनागरी लिपि का नामकरण ।
देवनागरी का नामकरण विवादास्पद है। अधिकांश विद्धान गुजरात के नागर ब्राहाण से इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। उनका मानना है गुजरात में सर्वप्रथम प्रचलित होने से वहाँ के पंडित वर्ग अर्थात् नागर ब्राह्मणों के नाम से इसे ‘नागरी’ कहा गया है। अपने अस्तित्व में आने के तुरन्त बाद इसने देवभाषा संस्कृत को लिपिबद्ध किया, इसलिए नागरी’ में ‘देव’ शब्द जुड़ गया और बन गया ‘देवनागरी”।
देवनागरी लिपि के गुण
एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत।
एक वर्ण संकेत से अनिवार्यतः एक ही ध्वनि व्यक्त
जो ध्वनि का नाम वही वर्ण का नाम।
मूक वर्ण नहीं।।
जो बोला जाता है वही लिखा जाता है।
एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं।
उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता। वर्णमाला ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरूप।
प्रयोग बहुत व्यापक (संस्कृत, हिन्दी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि)।
भारत की अनेक लिपियों के निकट।
देवनागरी लिपि के दोष
कुल मिलाकर 403 वर्ण होने के कारण टंकण, मुंद्रण में कठिनाई।
शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए। अनावश्यक वर्ण ।अधिकांशतः कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चारित नहीं कर पाता।
द्विरूप वर्ण (जैसे- ज्ञ, क्ष, त, त्र, छ, झ, रा ण, श)।
समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
वर्णो के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं। अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।।
त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।
वर्णो के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति।।
वर्ण
भाषा की न्यूनतम इकाई वाक्य है, वाक्य की न्यूनतम इकाई पद (शब्द) है और न्यूनतम इकाई वर्ण है।
वर्ण वह छोटी-से-छोटी ध्वनि है जिसके खण्ड (टुकड़े) नहीं किए जा सकते। भाषा को लखने के लिए लिपि’ का प्रयोग होता है। हिन्दी भाषा को लिखने के लिए ‘देवनागरी लिपि प्रयुक्त होती है जिसका विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। हिन्दी वर्ण -माला
हिन्दी वर्णमाला में कुल 52 वर्ण हैं जिनमें 11 स्वर वर्ण (ध्वनियाँ हैं, शेष 41 व्यंजन है वनियाँ हैं। वर्णमाला का जो स्वरूप डॉ. वासुदेवनन्दन प्रसाद ने पर्याप्त सोच-विचार के बाद प्रस्तुत किया है (पुस्तक- हिन्दी भाषा व्याकरण एवं रचना, प्रकाशक भारती भवन, पृ. सं. 17), वह इस प्रकार है
स्वर
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ = 11
अनुस्वार-अं = 2 व्यंजन ध्वनियाँ
विसर्ग–अः
व्यंजन
क, ख, ग, घ, ङ कंठ्य व्यंजन
च, छ, ज, झ, ञ तालव्य व्यंजन
ट, ठ, ड, ढ, ण मूर्द्धन्य व्यंजन स्पर्श व्यंजन = 25
त, थ, द, ध, न दंत्य व्यंजन
प, फ, ब, भ, म ओष्ठ्य व्यंजन
य, र, ल, व अन्तस्थ व्यंजन अन्य व्यंजन = 14
श, ष, स, हैं ऊष्म व्यंजन
क्ष, त्र, ज्ञ, श्रे संयुक्त व्यंजन
डु, ढु उत्क्षिप्त (द्विगुण) व्यंजन
कुल–स्वर = 11
व्यंजन = 41 (2 + 25 + 14)
विशेष : कुछ विद्धान डू व ढु को भी व्यंजन में जोड़ लेते हैं तो इनकी संख्या 35 हो जाती है।
नोटः
1. अनुस्वार, विसर्ग व्यंजन ध्वनियाँ हैं।
2. संयुक्त व्यंजन दो व्यंजनों के संयोग से बनते हैं। यथा
क्ष = क् + ष
त्र = त् + र
ज्ञ = ज् + जे
श्र = श् + र
3. उत्क्षिप्त व्यंजन ड़, ढ़ से कोई शब्द प्रारम्भ नहीं होता। ये शब्द के बीच में या अन्त में ही आते हैं, जबकि ड, ढ को प्रयोग शब्द के प्रारम्भ में भी होता है तथा अन्त में भी।
4. देवनागरी वर्णमाला में कुल ध्वनियाँ कितनी हैं इसके बारे में विद्वान् एकमत नहीं हैं।
(1) स्वर वर्ण
जिन वर्णो (ध्वनियों) के उच्चारण में भीतर (फेफड़ों) से आने वाली वायु बिना किसी अवरोध के मुख विवर से बाहर निकल जाती है, उन्हें स्वर कहा जाता है।
व्यंजनों का उच्चारण बिना स्वरों के नहीं किया जा सकता, किन्तु स्वर स्वतंत्र रूप से उच्चारित होते हैं।
हिन्दी की देवनागरी वर्णमाला में 11 स्वर वर्ण हैं जिन्हें तीन निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया गया हैं-
- ह्स्व स्वर- इन्हें बोलने में अत्यधिक कम समय लगता हैं ये इस प्रकार है-अ, इ, उ, ऋ। वस्तुतः अ वर्ण शब्द बोलने में जितना समय लगता है उसे मात्रा काल कहा जाता है। ये संख्या में कुल 4 हैं।
(2) दीर्थ स्वर इन्हें बोलने में दो गुणा समय लगता है। ये संख्या आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।।
(3) प्लुत स्वर- इन स्वरों को बोलने में तीन गुणा समय लगता। इन स्वर के नाम से भी जाना जाता है।
स्वरों के अन्य वर्गीकरण
1. अग्र स्वर ३, ई, ए, ऐ।
मध्य स्वर
पश्च स्वर – उ, ऊ, ओ, औ, आ
संवृत – इ, ई, उ, ऊ ।
अर्द्ध संवृत – ए, ओ
अर्द्ध विवृत – ऐ, औ, अ
विवृत – आ।
स्वर वर्गीकरण तालिका
अ- अर्द्ध विवृत, मध्य, ह्रस्व स्वर
आ- विवृत, पश्च, दीर्घ स्वर
इ – संवृत, अग्र, ह्रस्व स्वर
ई – संवृत, अग्र, दीर्घ स्वर
उ – संवृत, पश्च, ह्रस्व स्वर
ऊ – संवृत, पश्च, दीर्घ स्वर
ऋ – संवृत, पश्च, ह्रस्व स्वर
ए – अर्द्ध संवृत, अग्र, संयुक्त स्वर
ऐ – अर्द्ध विवृत, अग्र, संयुक्त स्वर
ओ – अर्द्ध संवृत, पश्च, संयुक्त स्वर
औ – अर्द्ध विवृत, पश्च, संयुक्त स्वर ।
अनुस्वार (अं)—यह स्वर के बाद आने वाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नासिका निकलती है। जैसे-अंग, कंधा, अंगद।
विसर्ग (अ)-यह भी स्वर के बाद आने वाला व्यंजन है जिसका उच्चारण ९ होता है। संस्कृत के वे शब्द जो हिन्दी में ज्यों के त्यों आ गए हैं यदि विसर्ग युक्त है। वे विसर्ग सहित लिखे जाते हैं। यथा-दुःख, मन:कामना।
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने अपने ग्रन्थ शब्दानुशासन में अनुस्वार अयोगवाह कहा है। वे इन्हें न तो स्वर मानते हैं, न व्यंजन।।
अनुनासिक ध्वनियाँ
अनुनासिक (-) के उच्चारण में कुछ वायु मुख से तो कुछ नासिका से निकलती है। जैसे पाँव, आँचल, आँगन आदि।
नोटः
हिन्दी वर्णमाला के वर्गीय व्यंजनों का पंचम वर्ण (ङ, ३, ण, न, म) अनुस्वार है तथा श्यामसुंदर दास के द्वारा किए गए सुधार के अनुसार हिन्दी शब्दों में पंचम वर्ण के स्थान पर केवल अनुस्वार (-) का प्रयोग करना उचित है। यथा
- गङ्गा के स्थान पर गंगा।
- पञ्च के स्थार पर पंच
- ठण्डा के स्थान पर ठंडा
- कन्त के स्थान पर कंत
- बम्बा के स्थान पर बंबा
- हिन्दी में गंगा, पंच, ठंडा, कंत, बंबा भी शुद्ध माने जाएँगे, अशुद्ध नहीं।
- व्यंजन वर्ण
व्यंजन वर्गों के उच्चारण में भीतर से आने वाली वायु मुख विवर में कहीं न कहीं अवरुद्ध होकर बाहर निकलती है। व्यंजनों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से नहीं होता, अपितु उनके उच्चारण में स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है।
देवनागरी वर्णमाला में मूल व्यंजनों की संख्या 33 (पुस्तक- हिन्दी भाषा व्याकरण एवं रचना, प्रकाशक भारती भवन, पृ. सं. 17, कुछ विद्धान ड्र व ढ़ को भी व्यंजन में जोड़ लेते हैं तो इनकी संख्या 35 हो जाती है।) है, जिन्हें तीन वर्गों में बाँटा गया है
(1) स्पर्श व्यंजन- इस प्रकार के व्यंजन के उच्चारण में वायु या जिव्हा का प्रयोग होता है। इसमें निम्नलिखित वर्ग होते हैं
क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग = कुल 25 व्यंजन
(1) अन्तस्थ व्यंजन – इस प्रकार के व्यंजन के उच्चारण में जिव्हा मुख के विभिन्न भागों को पूरी तरह से नहीं छूती है। यहाँ वायु भी अत्यधिक कम समय के लिये रूकती है। ये संख्या में कुल चार हैं। ये हैं- य, र, ल, वे = 4 व्यंजन
(3) ऊष्म व्यंजन – जिन वर्गों के उच्चारण में हवा अथवा वायु उच्चारण के स्थान से छूकर सीटी की ध्वनि के रूप में बाहर आती है, यही ऊष्म व्यंजन कहलाते हैं। ये संख्या में चार हैं श, ष, स, है = 4 व्यंजन
व्यंजनों का वर्गीकरण
(i) स्थान के आधार पर – स्थान के आधार पर 7 प्रकार के व्यंजन वर्ण हैं
1. ओष्ठ्य, 2. दंत्य, 3. वत्र्त्य, 4. तालव्य, 5. मूर्द्धन्य, 6. कंठ्य, 7. यंत्रमुखी।
(ii) प्रयत्न के आधार पर – इस आधार पर 8 प्रकार के व्यंजन वर्ण हैं
1. स्पर्श, 2. संघर्षों, 3. स्पर्श-संघर्षों, 4. नासिक्य, 5. पाश्विक, 6 उत्क्षिप्त, 7. प्रकपित, 8. संघर्षहीन सप्रवाह।
संयुक्त व्यंजन
क्ष, श्र तथा ज्ञ की गिनती संयुक्त व्यंजन के रूप में की जाती है। ये तीनों ही शब्द दो-दो शब्दों के मिलने से बनते हैं। किन्तु जब ये संयुक्त होते हैं तो नया रूप धारण कर लेते हैं। ये संख्या में चार संयुक्त व्यंजन हैं।
क्ष = क् + ष
त्र = त् + र
ज्ञ = ज् + ञ
श्र = श् + र
कुछ लोगों ने श्र को वर्णमाला में स्थान नहीं दिया है। इसी प्रकार ड़ ढ़ को भी वर्णमाला में स्थान न देकर ड, ढ का पूरक वर्ण मान लिया गया है।
द्धित्व व्यंजन
जब दो एक समान व्यंजन परस्पर मिलते हैं तो इस प्रकार के शब्द बनते है। ऐसे ही कुछ में स्थान अग्रलिखित है-
च्च = च् + च बच्चा
न्न = न् + न पन्ना
ल्ल = ल् + ल दिल्ली
सरकारी स्तर पर स्वीकृत वर्णमाला
सरकारी स्तर पर जो हिन्दी वर्णमाला स्कूलों में पढ़ाई जाती है उसमे केवल अग्रलिखित वर्ण ही सम्मिलित हैं-
अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः
क, ख, ग, घ, ड़, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ,
ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, ज्ञ।
कुल = 49 वर्ण
स्वर वर्ण = 11 वर्ण
व्यंजन वर्ण = 38 व्यंजन वर्ण
व्यंजनों में 25 स्पर्श व्यंजन हैं। (वर्गीय व्यंजन-5 वर्ग है, प्रत्येक वर्ग में 5 व्यंजन)
+ 4 अन्तस्थ व्यंजन
+ 4 ऊष्म व्यंजन
+ 3 संयुक्त व्यंजन
+ 2 (अं, अः)
कुल = 38 व्यंजन वर्ण
व्यंजनों के अन्य वर्गीकरण
- महाप्राण व्यंजन,
- अल्पप्राण व्यंजन।
जिन वर्णों के उच्चारण में कम हवा की जरूरत पड़ती है वे अल्पप्राण व्यंजन कहलाते है। प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा, पाँचवाँ अल्पप्राण व्यंजन है (तथा – क, ग, ड़) । जिन व्यंजनों के उच्चारण में अधिक हवा की जरुरत पड़ती है वे महाप्राण कहे जाते हैं। इन्हें अंग्रेजी मे जोड़कर
लिखा जाता है। प्रत्येक वर्ग का दूसरा, चौथा व्यंजन महाप्राण होता है। तथा – ख घ ये दोनों महाप्राण हैं।
घोष और अघोष व्यंजन
जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्वर तंत्रियाँ झंकृत होती है वे घोष व्यंजन है और जिनके उच्चारण मे स्वर तंत्रियाँ झंकृत नही होती वे अघोष व्यंजन है। प्रत्येक वर्ग का पहला और दूसरा व्यंजन अघोष है, जबकि तीसरा, चौथा, पाँचवाँ घोष व्यंजन है। यथा – क, ख अघोष है तथा ग, घ, ड़ घोष व्यंजन हैं।
वर्णों में सूक्ष्म भेद
- वर्णमाला की एक विशेषता यह भी होनी चाहिए कि उसके दो वर्णों (लिपि चिन्हों) में इतना साम्य न हो कि एक में दूसरे का भ्रम हो जाए। हिन्दी वर्णमाला में कुछ ऐसे वर्ण हैं जिनमें साम्य होने से भ्रम हो जाता है। यथा-
- व, ब
- ध, घ
- म, भ
- श, ष, स तीनों अलग ध्वनियाँ है। तीनों का उच्चारण स्थान भी अलग-अलग है। श- तालव्य व्यंजन है, ष- मूर्द्धन्य और स- दंत्य व्यंजन है। इनका उच्चारण शुद्ध होने पर ही श्ब्दों को इन्हे शुद्ध रूप से लिखा जाना चाहिए। यथा-
श्याम, ऋषि, सदैव
तीनों में श अलग रूप है जिसे बदला नहीं जा सकता।
संयुक्त वर्ण
दो या दो से अधिक वर्णों से मिलकर बनने वाले वर्ण संयुक्त वर्ण कहलाते हैं। जब दो वर्ण आपस में मिल जाते हैं तो उनमें एक वर्ण तो आधा और दूसरा किसी स्वर की सहायता से बना हुआ होता है। जैसे द एंव य शब्द मिलते हैं तो द्द बन जाता है। तो द्द संयुक्त वर्ण है।
जैसेः
द्ध= द्+ व द्ध= द्+ ध
द्भ= द्+ भ द्र= द्+ र
ह्= ह्+ र् ह्र= ह्+ व
हा= ह्+ म हा= ह्+ य
ह्= ह+ ऋ ह्= ह्+ ण
त्त्क= क्+ त क्र= क्+ र
र्ण= र्+ ण क्क= क्+ क
ट्ट = ट् + ट ट्ट = ट् + ठ
संयुक्त वर्ण में दो वर्ण होते है। लेकिन संयुक्त वर्णों मे जो पूरा दिखाई देता है वह वर्ण हमेश अधूरा होता है परन्तु जो वर्ण हमको अधूरा (आधा) दिखाई देता है वह वर्ण सदैव पूरा होता है।
हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़ और ढ़ जोडे गये हैं। किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे-
क् + ष = क्ष
त् र् त्र
अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये है। ये संयुक्त व्यंजन हैं।
यहाँ ड़-ढ़ में र की ध्वनि मिली है। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्दधा से होता है। किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्दधा में लगाने से भी वे उच्चारित होते है।
हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्ट हैं। व्यजनों के नीचे बिन्दु लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं। जैसे- कलम खैर जरूरत। किन्तु हिन्दी के विद्धानों (प. किशोरीदास वाजपेयी, पराड़करजी, टण्डनजी) काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन को यह स्वीकार नहीं हैं। इनका कहना है फारसी-अरबी से आये शब्दों को अपनी भाषा की प्रकृति अनुरूप लिखा जाना चाहिए। बँगला और मराठी में भी ऐसा ही होता है।
|वणों का उच्चारण
कोई भी व के भिन्न-भिन्न भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारण स्थान कहते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि मुख के छह भाग हैं-कण्ठ, तालु, मूर्दया, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण इन्ही से अनुशासित और उच्चारत होते हैं। चूँकि उच्चारण स्थान भिन्न है, इसलिए वर्णो को निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं
कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जोभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, क वर्ग, ह और विसर्ग।
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ग- इ, ई, च वर्ग, य और श।
मूर्दधन्य- मूद्धा और जीभ के स्पर्श वाले वर्ण- ट वर्ग, र, ष। दन्त्य- दाँत और जोभ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण- तु वर्ग, ल, स।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण-उ, ऊ, प वर्ग।
कण्ठतालय- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण- ए.ऐ।
कण्ठोष्ठय- कुष्ठ द्वारा जीभ और ओठे के कुछ स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण- ओ और औ।
दन्तोष्ठय- दाँत से जोभ और ओठे के कुछ योग से बोला जाने वाला वर्ण- व।।
स्वर वर्गों का उच्चारण
‘अ’ का उच्चारण- यह कठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं। जैसे- क्-अक। जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं। हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम ‘अ’ लगे वयं का उच्चारण हलन्त-सा होता हैं। जैसे- नमक, रात्, दिन्, मन्, रूप, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ग संयुक्त है, तो अन्त्य ‘अ’ का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।
इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ॐके बाद य” आए, तो अन्त्य ‘अ’ का उच्चारण पूरा होता है। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।
‘ऐ‘ और ‘औ‘ का उच्चारण-‘हे’ का उच्चारण कठ और तालु से और ‘औ’ का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं। संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भिन्न होता है।
जहाँ संस्कृत में ‘ऐ’ का उच्चारण ‘अउ’ और ‘औ’ का उच्चारण ‘अउ’ की तरह होता है, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः ‘अय’ और ‘अव’ के समान होता हैं। अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भिन्न है। इसके उदाहरण हम निम्नलिखित तालिका में देख सकते हैं-
संस्कृत में | हिन्दी में |
श्अइल- शौल (अइ) | ऐसा- अयसा (अय) |
क्अउतुक- कौतुक (अउ) | कौन-क्अवन (अव) |
व्यंजनों का सही उच्चारण
‘व’ और ‘ब’ का उच्चारण ‘व’ का उच्चारण स्थान तन्तोष्ठ है, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से ‘व’ का उच्चारण होता है और ब का उच्चारण दो ठों के मेल से होता हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा यह होता है कि लिखने और बोलने में बड़ी भूलें हो जाया करती है। वेद को बेद और वाय को बायु कहना बुरा लगता है। संस्कृत में ब का प्रयोग बहुत कम होता है, रिन्दी मे बहुत अधिक। यहू कारण है कि संस्कृत के तत्सम शब्दों में प्रयुक्त व वर्ण को हिन्दी मे ब लिख दिया जाता है। बात यह है कि हिन्दीभाषी बोलचाल में भी व और ब का उच्चारण एक ही तरह करते है। इसलिए लिखने मे भूल हो जाया करती हैं। इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता है। इससे अर्थ का अनर्थ भी होता हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
- वास- रहने का स्थान, निवास। बास- सुगन्ध, गुजर।
(ii) वंशी- मुरली। बंशी- मछली फंसाने का यन्त्र।
(iii) वेग- गति। बेग- थैला (अँगरेजी), कपड़ा (अरबी), तुर्की की एक पदवी।।
(iv) वाद- मत। बाद- उपरान्त, पश्रात।
(v) वाह्य- वहन करने (ढोय) योग्य। बाह्य- बाहरी।
सामान्यत: हिन्दी की प्रवृत्ति ‘ब’ लिखने की ओर हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोशों में एक ही शब्द के दोनों रूप दिये गये हैं। बँगला में तो एक ही ‘ब’ (व) है, ‘व’ नहीं। लेकिन, हिन्दी में यह स्थिति नहीं हैं। यहाँ तो ‘वहन’ और ‘बहन’ का अन्तर बतलाने के लिए ‘व’ और ‘ब’ के अस्तित्व को बनाये रखने की आवश्यकता हैं।
‘ड‘ और ‘ढ‘ का उच्चारण-हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में ‘ड’ और ‘ढ’ के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। वास्तव में ये वैदिक वर्षों के और क् ह के विकसित रूप हैं। इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिण (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं। जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़।
श-ध-स का उच्चारण-ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।
‘श’ के उच्चारण में जिह्वा तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर ‘ष’ के उच्चारण में जिल्ला मुद्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव ‘श’ तालव्य वर्ण है और ‘ष’ मूर्धन्य वर्ण। हिन्दी में अब ‘ष’ का उच्चारण ‘श’ के समान होता हैं। ‘५’ वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से ‘ष’ का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है, जैसे अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।
‘श’ और ‘स’ के उच्चारण में भेद स्पष्ट है। जहाँ ‘श’ के उच्चारण में जिहा ताल को स्पर्श करती है, वहाँ ‘स’ के उच्चारण में जिह्वा दाँत को स्पर्श करती है। ‘श’ वर्ण सामान्यतया संस्कृत फारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्दों में पाया जाता है, जैसे-पशु, अंश, शराब, शीशा, लाश, टे कमीशन इत्यादि।
हिन्दी की बोलियों में श, ष का स्थान ‘स’ ने ले लिया है। ‘श’ और ‘स’ के अशुद्ध उच् से गलत शब्द बन जाते है और उनका अर्थ ही बदल जाता है। अर्थ और उच्चारण के अन्तर । दिखलाने वाले कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
- अंश (भाग)- अंस (कन्धा) ।
- शकल (खण्ड)- सकल (सारा)।
- शर (बाण)- सर (तालाब) ।
- शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित)।
- र्श्व (कुत्ता)- स्व (अन्तसहित)।
- शान्त ( धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।
‘ड‘ और ‘ढ‘ का उच्चारण- इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है। जैसे- डाका, डमरू, ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में। गड्डा, खङ्का- द्वित्व में। डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्रात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।
संयुक्ताक्षर
हिन्दी वर्णमाला में तीन अक्षर आते हैं- क्ष, त्र और ज्ञ। इन अक्षरों की व्युत्पत्ति करते समय बहुत से बालक गलती करते हैं, लेकिन इन अक्षरों की सही व्युत्पत्ति इस प्रकार है
क् + ष = क्ष
त् + र = त्र
ज + अ = ज्ञ
इन तीनों अक्षरों में से सबसे ज्यादा गलती ‘ज्ञ’ की व्युत्पत्ति करते समय होती है। इसका मुख्य कारण है उत्तरी भारत के लोगों में इस अक्षर का उच्चारण ग्य जैसा होता है। हिन्दी में एक अक्षर ‘श्र’ भी है। तो आईए इसके विषय में ओर जानें- ‘श्र’ अक्षर श्+र से मिलकर बना है। कुछ लोग अक्सर ” श्रृंगार” इस प्रकार लिखते है जो कि पूरी तरह से अशुद्ध शब्द है। संयुक्तवर्ण में ‘श’ मूल वर्ण है जिसमें ‘र’ और ‘ऋ’ दोनों एक साथ मिल रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि इन दोनों में से एक ही ‘श’ के साथ संयुक्त होना चाहिए। यदि ‘श’ में ‘र’ का संयोजन होगा तो ‘श्र’ बनेगा और ‘ऋ’ का संयोजन होगा तो ‘श’ अथवा ‘श’ बनेगा। ‘श’ और ‘श’, दोंनो एक ही होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि श्रृंगार शब्द ही शुद्ध शब्द होगा और इसे ऐसे भी लिखा जा सकता है- शृंगार।
मात्राओं का ज्ञान
मात्राओं के बिना प्रत्येक वर्ण अधूरा होता है। इसलिए मात्राओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है लेकिन मात्राओं के ज्ञान के लिए बारहखड़ी के ज्ञान का होना भी अति आवश्यक है।
सभी मात्राओं को दो प्रकार से विभाजित किया जा सकता है
1. ह्रस्व मात्रा – अ, इ, उ की मात्राओं के द्वारा
2. दीर्घ मात्रा – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: की मात्राओं के द्वारा
कछ शब्दों में ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ व दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व मात्रा लगाने पर उन शब्दों के | अन्तर में बहुत बदलाव आ जाते है।
- दिन – दिवस, वार
दीन- गरीब, बेचारा, असहाय
- बुरा – हीन, कमजोर, गन्दा
बुरा – खाघ पदार्थ
- कुच – स्तन
कूच – प्रस्थान करना
- कम – थोड़ा
काम – कार्य, कर्म
- चय – निकलकर
चाय – एक पेय पदार्थ
हस्व व दीर्घ मात्राओं की गणना करने के लिए हस्त मात्रा की संख्या एवं दीर्घ मात्रा की संख्या दो होती है। एक मात्रा की पहचान करने के लिए (1) एवं दीर्घ मात्रा की पहचान करने के लिए (s) चिह्न का प्रयोग किया जाता है। इन चिह्नों को अवग्रह चिह्न भी कहा जाता है।
रू और रू में अन्तर
बहुत से विद्यार्थी ‘रु’ और ‘रू’ की पहचान नहीं कर पाते हैं। उनके लिए इसका जानना अति आवश्यक है। इस ‘र’ को ह्रस्व तथा इस रू’ को दीर्घ कहते हैं। लेकिन बहुत से विद्यार्थी दोनों स्थानों पर एक ही ‘रू’ का प्रयोग करते हैं। जिस ‘र’ के साथ बिना गाँठ वाली मात्रा लगती है, वो छोटा ‘रु’ होता है, और जिस ‘र’ के साथ गाँठ वाली मात्रा लगती है, वो बड़ा ‘रू होता है।
क्रियाकलाप
क्रियाकलाप-1
सर्वप्रथम अत्रों को स्वर व व्यंजन का ज्ञान कराना चाहिए। इसके लिए आप उन्हें कुछ शब्द दें कथा उनमें से शब्द व व्यंजन पृथक-पृथक करने को कहिए, जैसे
हिन्दी स्वर: इ तथा ई
व्यंजन: ह, , तथा द
रचना स्वर: आ
व्यंजन: र, च, तथा न
क्रियाकलाप-2
छात्रों को मात्राओं का ज्ञान कराने के लिए उन्हें कुछ शब्द दे दीजिए। इसके उपरान्त उनसे विभिन्न मात्राओं को छटवाइए। शब्द खिलाड़ी : मात्रा- । । । भोपाल : मात्रा-7 ।।
पूना : मात्रा- ।।
अध्याय-सार
- मूल स्वर के तीन भेद होते है
(1) हस्व स्वर
(2) दीर्घ स्वर
(3) प्लुत स्वर
- व्यंजनों के प्रकार
(1) स्पर्श व्यंजन ।
(2) अंतः स्थ व्यंजन
(3) उष्म व्यंजन (4) संयुक्त व्यंजन
व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा लगाई जाय,उसे हल कहते है। जैसे मुख के छ: भाग जहाँ से वर्गों का उच्चारण होता है-कण्ठ, तालु, मूर्दधा, दाँत ओठ और नाक।
* ‘ड्र’ और ‘ढ’ हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं।
भाषा की न्यूनतम इकाई वाक्य है, वाक्य की न्यूनतम इकाई पद (शब्द) और शब्द की न्यूनतम इकाई वर्ण है।
* हिन्दी वर्णमाला में कुल 52 वर्ण हैं जिनमें 11 स्वर वर्ण है, शेष 41 व्यंजन ध्वनियाँ है।
जिन व्यंजनों के उच्चारण के स्वर तंत्रियाँ झंकृत होती है वे धोष व्यंजन है।
जिनके उच्चारण में स्वर तंत्रिया झंकृत नहीं होती वे अघोष व्यंजन है।
दो या दो से अधिक वर्षों से मिलकर बनने वाले वर्ण संयुक्त वर्ण कहलाते है।
प्रश्नावली
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. वर्ण कितने होते हैं ?
2. व्यंजन कितने होते हैं?
3. विसर्ग की परिभाषा क्या है ?
4. लिपि क्या है?
5. संयुक्त शब्द क्या है?
लघु उत्तरीय प्रश्न
1, वर्ण क्या है ?
2. अनुस्वार को परिभाषित करो।
3. विसर्ग की परिभाषा क्या है ?
4. घोष और अघोष व्यंजन क्या हैं ?
5. संयुक्त वर्ण की परिभाषा लिखिए।
6. ‘रु’ और ‘रू’ में अन्तर बताओ।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1, हिन्दी वर्णमाला में कुल कितने अक्षर होते हैं
(A) 50
(B) 51
(C) 52
(D) 53 (C)
2. स्वरों की संख्या होती हैं –
(A) 10
(B) 11
(C) 12
(D) 13 (B)
3. व्यंजनों की संख्या होती है
(A) 41
(B) 42
(C) 43
(D) 44 (A)
4. ‘अं’ है
(A) अनुस्वार
(B) विसर्ग (C) । व ठ
(D) कोई नही (A)
5. दो या दो से अधिक वर्षों से मिलकर बनते हैं।
(A) स्वर
(B) व्यंजन
(C) अघोष व्यंजन
(D) संयुक्त वर्ण (D)