DEIEd Hindi Dhwani Study Material Notes Previous Question Answer
हिन्दी भाषा में ध्वनियों को सुनकर समझना एंव शुद्ध उच्चारण
हिन्दी की ध्वनियों को वर्णमाला में संकलित किया गया है। हिन्दी वर्णमाला में दो प्रकार की ध्वनियाँ होती है-स्वर और व्यंजन।
किसी कागज पर लिखे वर्ण भाषा नही होते है, वे सिर्फ चित्र होते हैं जिनका सम्बन्ध ध्वनियों से जोंड़ रखा है। यह वर्ण भाषा के रूप में बदलेंगे एवं हम इनको अपने ढ़ग से समझेंगे। हम जिस भाषा को समझ रहे है वह कुछ ध्वनियों की विशेष प्रकार की व्यवस्था है। प्रत्येक भाषा की अपनी एक व्यवस्था होती है, जो अन्य किसी विषय से भिन्न होती हैं।
ध्वनि का अर्थ
ध्वनि का शाब्दिक अर्थ होता है आवाज । भाषा शिक्षण में मुँह में स्वर-तंत्रियों के मध्य से निःसृत प्रश्वास जब मुँह से बाहर निकलता है तब वह दाँत, जीभ, होट (ओँष्ठ) आदि का भिन्न मुद्राओं से होकर अलग-अलग प्रकार की आवाज करता है, तो उसे ध्वनि कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने भावों को दूसरे तक पहुँचाने का प्रयास करता है तो वह ध्वनियंक्त्र सार्थक ध्वनियों के समूह को उत्पन्न करता है।
प्राथमिक विद्दालयों में बच्चों के प्रवेश के तुरन्त बाद उनका सामना पढ़ने और लिखने की निरर्थक कवायदों से होता है। इस प्रक्रिया में चरणबद्ध रूप से स्वर-व्यंजन रटाने, बारहखड़ी सिखानें, बिना मात्राओं के शब्द को पढ़ाने, मात्राओं के साथ शब्द पढ़ाने, बिना मात्राओं के छोटे-छोटे वाक्य, मात्राओं के साथ छोटे-छोटे वाक्य और फिर कविता, कहानी तथा अनुच्छेद पढ़ाने की कवायदें की जाती हैं। इसको हम ध्वनि-वर्ण अप्रोच कह सकते हैं। इसमें वर्ण को एक खास ध्वनि के रूप में पहचानने की कोशिश की जाती है। शिक्षक का पूरा ध्यान इस पर होता है कि ध्वनि और उसके लिखित संकेतकों के बीच सम्बन्द स्थापित किया जाए ताकि बच्चे ध्वनि को सुनकर इन संकेतों को लिख पाएँ या संकेतों को देखकर वही ध्वनि निकाल पाएँ।
इस प्रक्रिया में कक्षा की भाषा एवं बच्चे की भाषा के बीच टकराव बच्चे को पढ़ाने की प्रक्रिया से ही दूर कर देता है। सामान्यतः बच्चे स्कूल मे प्रवेश के पहले अपने आसपास के परिवेश, घर-संसार, रिश्ते-नाते, खेत-खलिहान, बाजार आदि के बारे में काफी कुछ जानते है। इऩ सभी बातों को वे अपनी भाषा में व्यक्त कर पाते हैं। उनसे अर्थ निकाल पाते हैं। ध्वनि-वर्ण अप्रोच में अक्सर बच्चे अर्थ नहीं लिकाल पाते और अगर अर्थ निकालते भी है तो वह भी काफी बाद में । ऐसा इसलिए क्योंकि वर्ण सीखने के दौरान अर्थ-ग्रहण करने की प्रक्रिया नहीं होती बल्कि पूरा जोर उच्चारण पर होता है। सामान्यतः वर्णमाला ही पूरी तरह से रटवा दी जाती हैं जब क से कमल पढ़ाने है तो पढ़ाने के तरीके से यह लगता है कि क का मतलब कमल है ना कि गमल तीन वर्णो से मिलकर बना है क-म-ल। इसके साथ ही क का कोई चित्र बच्चे के दिमाग में नही बनता। रटवाने की यह प्रक्रिया पूरी बारहखड़ी तक चलती है। इसके बाद के चरण में बिना मात्राओं के छोटे-छोटे शब्द और वाक्यों को पढ़ाते हैं तो सामान्यतः घऱ पर चल छत पर मत छढ़ रथ तक चल कल तक चल जैसे वाक्य होते है, जिनका बच्चों के अनुभव से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बाद मात्राओं वाले शब्द और सरल वाक्य आते है, इनके भी सीमित अर्थ होते है। इतनी कवायदों के बाद जाकर बच्चों को यह मौका मिलता है कि वे कविता, कहानियँ तथा अनुच्छेद पढ़ें। यह सामग्री जरूर अर्थ-पूर्ण होती है, परन्तु तब तक कई बार बच्चों को वर्णों को जोड़कर पढ़ने की एसी आदत विकसित हो जाती है कि शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अर्थ-मुश्किल हो जाता है।
ध्वनि की प्रक्रिया व प्रवृत्ती
ध्वनि की प्रक्रिया व प्रवृत्ति को हम निम्नलिखित बिन्दुऔं के माध्यम से समझ सकते है-
ध्वनि के लिए सर्वप्रथम एक यंत्र अथवा स्त्रोत होना परम आवश्यक है। इसके मुख्य अवयव निम्नलिखित हो सकते है-
- मानव अथवा जानवरों का मुंह,
- कोई ध्वनि उत्पातक यंत्र, जैसे-नदी की कल-कल, झरने की आवाज तथा कड़कती बिजली इत्यादि।
- इसके उपरान्त ध्वनि किसी कर्णपटल पर पड़ती है। वहाँ पर कर्णपटल उसको सुनता है।
- हमारा कान जो सुनता है उसका अध्याय हमारा मस्तिष्क करता है तथा मस्तिष्क ही बताता है कि ध्वनि कैसी है? किसकी है? इसकी तीव्रता कैसी है? तथा ध्वनि का क्या अर्थ है? इस प्रकार यह स्पष्ट है कि ध्वनि एक प्रक्रिया है जो विभिन्न प्रक्रिया के माध्यम से होकर मस्तिष्क तक पहुँचती है जहाँ मस्तिष्क उसका विश्लेषण करता है।
- हम जानते है कि जानवर हमारी आवाज तो सुन सकते है किन्तु उसका विश्लेषण नहीं कर सकते, क्योंकि जैविक रूप से उनका मस्तिष्क मनुष्य की तरह विकसित नहीं होता ।
- मानव शिशु भी जब अत्यधिक होता है तो उसका मस्तिष्क भी कम विकसित होता है अतः वह भी ध्वनियों का विश्लेषण सही से नहीं कर पाता है। किन्तु शनैः शनैः उसका मस्तिष्क विकसित होता जाता है तो वह ध्वनियों को समझकर अपने ज्ञान मे वृद्धि करता है तथा धीरे-धीरे वह भाषा का ज्ञान भी समझता जाता है।
ध्वनि का महत्व
उपरोक्त विवरण स्पष्ट करता है कि ध्वनि का महत्व कितना है? एक प्रकार से कहें तो ध्वनि तथा उसकी भाषा के अभाव में मानव तथा जानवर के मध्य अन्तर करना अत्यधिक कठिन है। संक्षेप में ध्वनि के महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते है-
- भारतीय संस्कृति में अनेक परिवार ऐसे है जो बालक के जन्म के उपरान्त उनसे कान मे ध्वनि धीरे से कुछ शब्द कहते है। यह शब्द उस नवजात शिशु के कानों में जाते हैं। विभिन्न विश्वासों के अनुसार वह ध्वनि रूपी नवजात शिशु का सर्वंगीण विकास करते है।
- ध्वनि रूपी एक एक शब्द सुनकर बालक भाषा को समझता है, जैसे अपनी अति आरम्भिक अवश्था में वह अ, आ, इ, ई इत्यादि समझता है।
- ध्वनि तथा मस्तिष्क दोनों एक-दूसरे के पूरक है। इससे दोनों का ही विकास होता है।
- व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध ध्वनि से प्रदान की गयी शिक्षा शीघ्र ही गृहणीय हो जाती है।
- ध्वनि ही किसी भी भाषा की मूल होती है। इसके अभाव में एक भाषा की कल्पना करना भी अंसम्भव है।
भाषा विज्ञान के अनुसार ध्वनि का अर्थ
शाब्दिक रूप से ध्वनि-शब्द का जन्म ध्वन् धातु में इण् (इ) प्रत्यय जुड़ने के उपरान्त हुआ है। इसके अनुसार ध्वनि की शाब्दिक अर्थ आवाज करना होता है। ध्वनि ही किसी भी भाषा को मूलभूत तथा प्रथम इकाई है। इसी से भाषा का जन्म होता है। ध्वनि की प्रक्रिया वर्ण कहलाने वाली इकाई के माध्यम से आगे चलती है अर्थात ध्वनि का लिखित रूप ही वर्ण है। यह भाषा की लघुत्तम् इकाई है तथा इसका पुणः विभाजन अथवा टुकड़े नही किये जा सकते। ऐसे ही हिन्दी भाषा के वर्णों के कुछ उदाहरण अग्रलिखित हैं-
उदाहरण- अ, इ उ, ए इत्यादि।
जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि ध्वनि भाषा का मूल तथा प्रथम आधार है। इसके बिना भाषा की कल्पना करना भी मूर्खता है। भाषा-विज्ञान की दृष्ति से व्यक्ति मुख-वायु-विवर के माध्यम से तथा वाक्-इन्द्रियों की सहायता से कुछ सोच-समझकर तथा नियोजन के साथ ध्वनि निकालना है। यही भाषा का प्रथम आधार होता है। वस्तुतः मुख-वायु-विवर के माध्यम से तथा वाक-इन्द्रियों के माध्यम से जो सोच-समझकर शब्द कहे जाते वे ही अक्षर अथवा वर्ण कहलाते है। जैसे एक छात्र को हम अ तथा आ तक इ तथा ई में भेद समझाने का प्रयत्न करते है।
ध्वनि अथवा स्वन विज्ञान का स्वरुप
भाषा की लघुत्तम इकाई स्वन है। इसे ध्वनि नाम भी दिया जाता है। ध्वनि के अभाव में भाषा की क्ल्पना भी नहीं की जा सकती है। भाषा विज्ञान में स्वन के अध्ययन संदर्भ को स्वनविज्ञान की संज्ञा दी जाती है। ध्वनि शब्द ध्वन् धातु में इण् (इ) प्रत्यय के योग से बना है। भाषा विज्ञान के गंभीर अध्ययन मे ध्वनिविज्ञान एक महत्तवपूर्ण शाखा बन गई है। इसके लिए ध्वनिशास्त्रा, ध्वन्यालोचन, स्वनविज्ञान, स्वनिति आदि नाम दिए गए है। अंग्रेजी में उसके लिए फोनेटिक्स () और फनोलॉजी () शब्दों का प्रयोग होता है। इन दोनों शब्दों की निर्मिति ग्रीक के फोन (चीवदम) से है।
स्वर (ध्वनि) के अध्ययन में तीन पक्ष सामने आते हैं-
- उत्पादक
- संवाहक
- संग्राहक
- स्वन उत्पन्न करनेवाले व्यक्ति या वक्ता को स्वनउत्पादक की संज्ञा देते है। संग्राहक या ग्रहणकर्ता श्रोता होता है, जो ध्वनि को ग्रहण करता है। संवाहक या संवहन करनेवाला माध्यम जो मुख्यतः वायु की तरंगों के रूप में होता है। स्वन प्रक्रिया में तीनों अंगों की अनिवार्यता स्वतः सि) है। जब मुख के विभिन्न अंगों में से किन्हीं दो या दों से अधिक अव्यवयों के सहयोग से ध्वनि
उत्पन्न होगी तभी स्वन (ध्वनि) का अस्तित्व सम्भव है। ध्वनि-उत्पादक अवयवों की भूमिका के अभाव में स्वन का अस्तित्व असंभव है।
- ध्वनि उत्पादक अवयवों की उपयोगी भूमिका के बाद यदि संवाहक या संवहन माध्यम का अभाव होगा, तो स्वन का आभास असम्भव है। माना एक व्यक्ति एक वायु-अवरोधी (airtight) कक्ष में बैठ कर ध्वनि करता है, तो वायु तरंग कक्ष से बाहर नहीं आ पाती और बाहर का व्यक्ति ध्वनि-ग्रहण नहीं कर सकता है। इस प्रकार स्वन प्रक्रिया अवरुद्ध हो जाती है।
| 3. तृतीय अंग संग्राहक या श्रोता के अभाव में ध्वनि-उत्पादन का अस्तित्व स्वतः ही शून्य हो जाता है। इस प्रकार स्वन प्रक्रिया में वक्ता (उत्पादक), माध्यम (संग्राहक) ग्रहणकर्ता, तीनों का होना अनिवार्य होता है।
| ध्वनि के सार्थक और निरर्थक दो स्वरूप हैं। भाषा विज्ञान में केवल सार्थक ध्वनियों का अध् ययन किया जाता है। ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया में वायु मुख या नाक दोनों ही भागों से निकलती है। इस प्रकार ध्वनि को अनुनासिक तथा निरनुनासिक दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। ध्वनियों के उच्चारण में वायु मुख-विवर के साथ नासिका-विवर से भी निकलती है। उसे अनुनासिक ध्वनि कहते हैं। जिन ध्वनियों के उच्चारण में वायु केवल मुख-विवर से निकले उसे निरनुनासिक या मौखिक ध्वनि कहते हैं। ध्वनि की तीव्रता और मंदता के आधार पर उसे नाद, श्वास तथा जपित, तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। जब ध्वनि उत्पादन में स्वर तंत्रियाँ एक दूसरे से मिली होती हैं, तो वायु उन्हें धक्का देकर बीच से बाहर आती है, ऐसी ध्वनि को नाद ध्वनि कहते हैं, यथा-ग, घ, ज् आदि। इसे सघोष ध्वनि भी कहते हैं। जब स्वर तंत्रियाँ एक दूसरे से दूर होती हैं तो निश्वास की वायु बिना घर्षण के सरलता से बाहर आती है। ऐसी ध्वनि को ‘श्वास’ या अघोष कहते हैं यथा क, त, प् आदि। जब बहुत मंद ध्वनि होती है तो दोनों स्वर तंत्रियों के किसी कोने से वायु बाहर आती है। ऐसी ध्वनि को जपित ध्वनि कहते हैं।
| भाषा-अध्ययन में स्वनविज्ञान का विशेष महत्त्व है क्योंकि अन्य वृहद इकाइयों का ज्ञान इसके ही आधार पर होती है। इसके ही अन्तर्गत विभिन्न ध्वनि उत्पादक अवयवों का अध्ययन किया जाता है। स्वनों के शुद्ध ज्ञान के पश्चात शद्ध लेखन को सबल आधार मिल जाता है। उच्चारण में होनेवाले विविध संदर्भो के परिवर्तनों का ज्ञान भी सम्भव होता है।
स्वनविज्ञान में विभिन्न ध्वनियों के अध्ययन के साथ उनके उत्पादन की प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। इसी अध्ययन क्रम में ध्वनि उत्पादक विभिन्न अंगों की रचना और उनकी भूमिका का भी अध्ययन किया जाता है। ध्वनिगुण और उसकी सार्थकता का निरूपण भी किया जाता है। स्वन के साथ ‘स्वनिम’ का भी विवेचन-विश्लेषण किया जाता है। भाषा की उच्चारणात्मक लघुत्तम इकाई अक्षर के स्वरूप और उनके वर्गीकरण पर भी विचार किया जाता है। समय, परिस्थिति और प्रयोगानुसार विभिन्न ध्वनियों में परिवर्तन होता रहता है। ध्वनि-परिवर्तन के संदर्भ में विभिन्न विद्वानों ने कुछ ध्वनि नियम निर्धारित किए हैं। इन नियमों के अध्ययन के साथ हैं वनि-परिवर्तन की दिशाओं और ध्वनि-परिवर्तन के कारणों पर विचार किया जाता है।
उच्चारण
जिस प्रकार से कोई शब्द बोला जाता है या कोई भाषा बोली जाती है या कोई व्यक्ति किसी शब्द को बोलता है उसे उसका उच्चारण (pronunciation) कहते हैं। भाषाविज्ञान में उच्चारण के शास्त्रीय अध्ययन को ध्वनिविज्ञान की संज्ञा दी जाती है। भाषा के उच्चारण की ओर तभी ध्यान जाता है जब उसमें कोई असाधारणता होती है, जैसे
(क) बच्चों को हकलाकर या अशुद्ध बोलना,
(ख) विदेशी भाषा को ठीक न बोल सकना,
(ग) अपनी मातृभाषा के प्रभाव के कारण साहित्यिक भाषा के बोलने की शैली का प्रभावित होना, आदि।
विभिन्न लोग या विभिन्न समुदाय एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से बोलते है। किसी शब्द को बोलने का ढंग कई कारकों पर निर्भर करता है। इन कारकों में प्रमुख हैं। किस क्षेत्र में व्यक्ति रहकर बड़ा हुआ है, व्यक्ति में कोई वाक-विकार है या नहीं, व्यक्ति का सामाजिक वर्गय व्यक्ति की शिक्षा, आदि।
देवनागरी आदि लिपियों में लिखे शब्दों का उच्चारण नियत होता है किन्तु रोमन, उर्द आ लिपियों में शब्दों की वर्तनी से उच्चारण का सीधा सम्बन्ध बहुत कम होता है। इसलिये अंग्रेजी फ्रेंच आदि भाषाओं के शब्दों के उच्चारण को बताने के लिये अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) लिपि या आडियो फाइल या किसी अन्य विधि का सहारा लेना पड़ता है। किन्त हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली आदि के शब्दों की वर्तनी ही उनके उच्चारण के लिये पर्याप्त है।
परिचय
उच्चारण के अंतर्गत प्रधानतया तीन बातें आती हैं :
1. ध्वनियों, विशेषतया स्वरों में ह्रस्व दीर्घ का भेद,
2. बलात्मक स्वराघात,
3. गीतात्मक स्वराघात।
इन्हीं के अंतर से किसी व्यक्ति या वर्ग के उच्चारण में अंतर आ जाता है। कभी-कभी ४ | वनियों के उच्चारणस्थान में भी कुछ भेद पाए जाते हैं।
उच्चारण के अध्ययन का व्यावहारिक उपयोग साधारणतया तीन निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जाता है।
1. मातृभाषा अथवा विदेशी भाषा के अध्ययन अध्यापन के लिए, 2. लिपिहीन भाषाओं को लिखने के निमित्त वर्णमाला निश्चित करने के लिए,
3. भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण की विशेषताओं को समझने तथा उनका तुलनात्मक अध् ययन करने के लिए। ।
यद्यपि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण में समानता का अंश अधिक पाया जाता है, तथापि साथ ही प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कुछ विशेषताएँ भी मिलती हैं, जैसे भारतीय भाषाओं की मूर्धन्य ध्वनियाँ ट् ठ् ड् आदि, फारसी अरबी की अनेक संघर्षी ध्वनियाँ जेसे ख ग ज आदि, हिंदी की बोलियों में ठेठ ब्रजभाषा के उच्चारण में अर्धविवृत स्वर ऐ, ओं, भोजपुरी में शब्दों के उच्चारण में अंत्य स्वराघात।
भाषाओं के बोले जानेवाले रूप अर्थात उच्चारण को लिपिचिह्नों के द्वारा लिखित रूप दिया जाता है, तथापि इस रूप में उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो पाता है। वर्णमालाओं का आविष्कार प्राचीनकाल में किसी एक भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए हुआ था, किंतु आज प्रत्येक वर्णमाला अनेक संबद्ध अथवा असंबद्ध भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होने लगा है जिनमें अनेक प्राचीन ध्वनियाँ लुप्त और नवीन ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं। फिर, प्रायः वर्णमालाओं में हृस्व, दीर्घ, बलात्मक स्वराघात, गीतात्मक स्वराघात आदि को चिह्नित नहीं किया जाता। इस प्रकार भाषाओं के लिखित रूप से उनकी उच्चारण संबंधी समस्त विशेषताओं पर प्रकाश नहीं पड़ता।
प्रचलित वर्णमालाओं के उपर्युक्त दोष के परिहार के लिए भाषाविज्ञान के ग्रंथों में रोमन लिपि के आधार पर बनी हुई अंतरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि (इंटरनैशनल फोनेटिक स्क्रिप्ट) का प्रायः प्रयोग किया जाने लगा है। किंतु इस लिपि में भी उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो सका है। इनका अध्ययन तो भाषा के ‘टेप रिकार्ड’ या ‘लिंग्वाफोन’ की सहायता से ही संभव होता है।
। भाषा के लिखित रूप का प्रभाव कभी-कभी भाषा के उच्चारण पर भी पड़ता है, विशेषतया ऐसे वर्ग के उच्चारण पर जो भाषा को लिखित रूप के माध्यम से सीखता है जैसे हिंदीभाषी ‘वह’ को प्रायः ‘वो’ बोलते हैं, यद्यपि लिखते ‘वह’ हैं। लिखित रूप के प्रभाव के कारण अहिंदीभाषी सदा ‘वह’ बोलते हैं। ।
प्रत्येक भाषा के संबंध में आदर्श उच्चारण की भावना सदा वर्तमान रही है। साधारणतया प्रत्येक भाषाप्रदेश के प्रधान राजनीतिक अथवा साहित्यिक केंद्र के शिष्ट नागरिक वर्ग का उच्चारण आदर्श माना जाता है। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि इसका सफल अनुकरण निरंतर हो सके। यही कारण है कि प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कम या अधिक मात्रा में अनेकरूपता रहती ही है।
| किसी भाषा के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन करने या कराने के लिए ध्वनिविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। प्रयोगात्मक ध्वनिविज्ञान की सहायता से उच्चारण की विशेषताओं का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण संभव हो गया है। किंतु उच्चारण के इस वैज्ञानिक विश्लेषण के कुछ ही अंशों का व्यावहारिक उपयोग संभव हो पाता है।
ध्वनि के मूल तत्व
सार्थक ध्वनियों के लिए ध्वनि के मूल तत्वों का निर्वाह होना अति आवश्यक है। इनकों निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है –
स्पष्टता- बोलने में स्पष्टता हो तथा सुनने वाला सुनकर अर्थग्रहण कर सके यहाँ यह आवश्यक है।
सुश्रव्यत्ता- उपस्थित समुदाय तक आवाज तथा स्वर पहुँचने चाहिए अर्थात् वाणी न बहुत तेज हो न बहुत धीमी चाहिए।
तरंगता- अवश्य ही ध्वनि में आरोहावरोह होना चाहिए। एक ही प्रकार से निरन्तर बोलने पर श्रोता ऊब सकते हैं तथा अर्थग्रहण की दृष्टि से स्वराघात, बलाघात की आवश्यकता होती है, यही तरंगता कहलाती है। |
सार्थकता- वाणी सार्थक हो-अनावश्यक ध्वनि विस्तार न हो, शब्दों की अनावश्यक आवृत्ति न हो इसका ध्यान रखना चाहिए।
शुद्धता- ध्वनि का शुद्ध उच्चारण समाज द्वारा मान्य एवं परिष्कृत होना चाहिए। ध्वनियों के विषय में वर्तमान स्थिति ऋ- हिन्दी शब्दों से ऋ प्रायः लुप्त हो गया है केवल तत्सम शब्दों में ऋ की ध्वनि प्राप्त होती है। ‘व’- दन्त्योष्ठ ध्वनि है क्योंकि नीचे का होठ ऊपर के दाँतों के पास प्रश्वास रोकता है। “ष’- का उच्चारण अब ‘श’ हो रहा है- वर्तनी में भी कई जगह तलव्य ‘श’ का प्रयोग है। ड़े, ढु- हिन्दी भाषा में अन्य भाषा की ध्वनियाँ हैं- ये उत्क्षिप्त हैं।
संयुक्त व्यंजन क्ष, त्र, ज्ञ में प्रत्येक में दो व्यंजन हैं:
क्ष= क् + ष् + अ + त्र = त् + र् + अ + I ज्ञ = ज् + ञ् + अ।
पर चिंतन एवम् मनन ।
न ही भाषा
का विशेष महत्व व्य व्याकरण की
ति पर ध्यान न दिया
श्रवण कौशल
श्रवण कौशल का अर्थ बच्चों में ऐसी क्षमता का विकास करने से है जिससे कि बच्चा किसी कथन को ध्यान से सुनकर उसका सही अर्थ समझ सके तथा सुनी हुई बात पर चिंतन एवं मनन कर सके और उचित निर्णय भी ले सकें।
बोलने व बोलने में शब्दों के उच्चारण, वाक्य की रचना और आवाज में उतार चढाव का विशेष होता है। अगर बोलते समय शब्द का शुद्ध उच्चारण नहीं किया गया,या वाक्य व्याकरण दृष्टि से अशुद्ध रह गया या बोलने में उचित बल, आरोह-अवरोह, की गति पर ध्यान न दिया गया तो बोलने वाले की बात समझने में परेशानी होगी। बोलचाल में प्रभाव तभी आ सकता। जब वक्ता का कथन स्वाभाविक और अवसर के अनुकूल हो। बोलने में विचार और भाषा की स्पष्टता होना जरूरी है।
सुनने और बोलने को अलग अलग करके देखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती और बोलना एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। बच्चे की भाषा का अधिकतर भाग उसके श्रवण । की देन होता है। मौखिक कौशल द्वारा वह भाषा का अभ्यास और पुनः रचना करता है। कौशल तभी कार्य करता है जब कोई वाचन कौशल का उपयोग कर रहा हो। जब कोई स्वर्ग बोल रहा हो तो भो श्रवण कौशल साथ साथ चलता रहता है। बोलने और सुनने के इस अन्तर्स को हम घर स्कूल मोहल्ले आदि किसी भी स्थान पर देख सकते हैं। घर पर, विशेष रूप से परिवारों में, सुनने और बोलने के भरपूर अवसर बच्चों को मिलते हैं। वे आदेश, निर्देश अन | सलाह आदि को सुनकर उनके अनुसार कार्य करते हैं। वे प्रश्नों के उत्तर देते हैं, तथा दूसरों को अ
विचार, इच्छाएँ और डर बताते हैं । |
खेलकूद के दौरान सुनने और बोलने के बीच के अटूट सम्बन्ध को सहज ही पहचाना जा सकता है। बच्चे एकदूसरे की बाते सुनकर और सुनाकर खेल के नियम बनाते हैं और उनके अनुसार कार्य करते हैं । कक्षा में सुनने और बोलने की अभिन्नता को और अधिक औपचारिक रूप से देखा जा सकता है । हमारी शिक्षा व्यवस्था मुख्य रूप से सुनने और बोलने पर ही आधारित है।
बच्चे आमतौर पर सुनने और बोलने के दौरान निम्न प्रक्रियाएं करते दिखाई दे सकते हैं ..
• जिस चीज पर अभी तक ध्यान नहीं दिया, उस पर ध्यान देना,
• उसे मोटे तौर पर या बारीकी से देखना,
• अपने अपने निरीक्षणों का आदान प्रदान करना, ।
• निरीक्षणों को क्रमबद्धता से लगाना,
• दूसरे के निरीक्षण को चुनौती देना,
• निरीक्षण के आधार पर तर्क करना,
• भविष्यवाणी करना,
• किसी पिछले अनुभव को याद करना,
• दूसरे की भावनाओं या उसके अनुभवों की कल्पना करना,
• किसी काल्पनिक स्तिथि में स्वयं की भावनाओं की कल्पना करना।
• कक्षा में बच्चे शिक्षक और साथियों की बातचीत को सुनते हैं और उन्हें अपनी बातें बताते है
इस आदान प्रदान का परिणाम बच्चों में भाषायी कुशलता के विकास के रूप में होता है। बोलने पर बोलने पर ही भाषा के अतिरिक्त अन्य विषयों का शिक्षण अधिगम भी निर्भर करता है। इसलिए सुनने और बोलने को शिक्षा की आधारभूमि कहा जाता है।
वर्गों की संज्ञाएँ
स्पर्श व्यंजन क से म तक (क, च, ट, त, प वर्ग)
अर्द्ध स्वर य, व
अन्तस्थ य, र, ल, व
ऊष्मा श, ष, स
महाप्राणसंयुक्त व्यंजन क्ष, त्र , ज्ञ
ध्वनियों का वर्गीकरण
हस्व व दीर्घ के अनुसार ध्वनियों का वर्गीकरण निम्नलिखित है
ह्रस्व अ, इ, उ, ऋ
दिर्घ आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
जिह्वा (जीव) के अनसार
संवृत्त इ, ई, उ, ऊ
असंवृत्त ए, ओ
अदविवृत ऐ, ओ, अ
विवृत आ
उच्चारण के अनुसार वर्षों का अन्तर
कण्ठ- जिन वर्गों के उच्चारण में जिह्वा कंठ की ओर मुड़ती है, उन वर्षों का उच्चारण कण्ठ से होता है। जैसे- अ, आ, क, ख, ग, घ, ड., हैं।
तालु- जब उच्चारण करते समय जीभ तालु से छूती है, ऐसे वणों का उच्चारण स्थान तालु होता है। जैसे- इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ, य, श। |
मूर्धा- जब उच्चारण करते समय जीभ दाँतों के ऊपरी भाग को स्पर्श करती है, ऐसे वर्ण मधे । से उच्चारित कहलाते हैं। जैसे- ऋ, ठ, ड, ढ, ण, र, ष।
दन्त्य- जब वर्गों का उच्चारण करते समय जीभ दाँतों का स्पर्श करें, वे वर्ग दन्त्य कहलाते | हैं। जैसे- त, थ, द, ध, न, ल, स।
ओष्ठ- जिन वर्णो के उच्चारण करते समय ओष्ठ आपस में मिल जाते हैं, वे वर्ण ओष्ठ उच्चारण वाले कहे जाते हैं। जैसे- प,फ, ब, भ, म, उ, ऊ।।
नासिका- जिन वर्णो के उच्चारण में नाक भी सहायक होती है, वे प्रत्येक वर्ग के पंचम वर्ण इसके अन्तर्गत आते हैं। जैसे- ड., ज, ण, न, म।।
धोष वर्ण- जिन वर्गों का उच्चारण करते समय वायु स्वर तत्रियों के साथ रगड़ पाकर नाद उत्पन्न करती हो वे घोष वर्ण कहलाते हैं। जैसे- ग, घ, ड., ज, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, । र, ल, व, हैं, अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।।
अघोष वर्ण- जब वर्गों के उच्चारण करते समय वायु स्वर तात्रया के बिना रगड़ खा आसानी से निकलती है, व अघोष वर्ण कहलाते हैं। क, ख , च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, प, स।
अल्पप्राण वर्ण
ऐसे वर्ण जिनके उच्चारण के समय कम वायु बाहर निकले।
जैसे – क ग ड़., च ज ञ, ट ड ण, त द न, प ब म, य र ल व, य अ आ इ ई, उ ऊ ए ऐ : ऋ ।
महाप्राण वर्ण
ऐसे वर्ण जिनके उच्चारण के समय अधिक वायु बाहर निकले। जैसे -ख घ छ झ ठ ढ थ ध फ भ श ष ह तथा विसर्ग।
अनुनासिक स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण के समय वायु मुख विवर के साथ नाक से भी निकलती है तो स्वर अनुनासिक स्वर कहलाते हैं। इन स्वरों में चन्द्र बिन्दु का प्रयोग होता है। यदि शिरों रेखा ऊपर चन्द्र बिन्दु के साथ किसी मात्रा का प्रयोग हो रहा हो तो चन्द्रबिन्दु के स्थान पव केवल (.) प्रयोग होता है।
जैसे :
आँ – आँख, साँस, बाँस।
ई – ईट, चींटी, छींख ।
ॐ – ऊँट, ऊँचाई, उँगली।
व्यंजनों में ड्. ज्, ण् व्यंजनों का प्रथम वर्ण के रूप में प्रयोग नही होता है। वर्ण के पंचम पांच वर्ण (ड्., ३, ण, न, म्) अनुनासिक व्यंजन हैं, इनका प्रयोग (.) अनुस्वार के रूप में किया जाता है। ये स्वर के बाद के प्रयोग में आते हैं। इनका लिपि रूप (-) है। पांचों अनुनासिक व्यंजनों का विकल्प से लिपि चिह्न अनुस्वार (-) रूप होता है। इनके प्रयोग के आगे जिस वर्ग का व्यंजन होता हैं, अनुस्वार उस वर्ग के पंचम वर्ण का लिपि चिह्न माना जाता है। जैसे- (पंखा, गंगा, दिनांक), सम्बन्ध (संबंध), पन्त (पंत), कण्टक (कंटक), पम्प (पंप)।
लुप्त होते वर्ण
हिन्दी के उपर्युक्त वर्गों में स्वर ‘ऋ” का उच्चारण अब धीर-धीरे कम होता जा रहा है। अब ‘‘ऋ” का प्रयोग संस्कृत के तत्सम शब्दों में मिलता है। ‘ष” का शुद्ध उच्चाण भी धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। इस शब्द के स्थान पर “श” का । उच्चारण होने लगा है। सभी व्यजनों में सभी स्वरों की मात्राएँ लग सकती हैं। लेकिन ‘र” के । साथ ”ऋ” की मात्रा का प्रयोग नहीं हो सकता।
‘र के चार लिपि रूप हैं- ‘र’ । ‘ (कर्म, कर्म, प्रभाव, राष्ट्र) निम्नांकित संयुक्ताक्षरों में स्वर व्यंजन का क्रम देखिए
द्धृ= द्+ व्+ अ ध्य=ध्+ य्+ अ श्री= श्+ र्+ ई
प्र= प्र+ र्+ अ द्ध= ध+ द्+ अ श्व= श्+ व्+ अ
र्म= र्+ म्+ अ ह्= ह्+ न्+ अ द्ध= द्+ ऋ
घ= द्+ य्+ अ ह्= ह्+ व्+ अ गृ= ग्र+ ऋ
वणों के भेद
यह दो प्रकार के होते हैं, इनका विवरण निम्नलिखित है:1. 1.स्वर 2. व्यंजन
स्वर
स्वर का अर्थ होता है ऐसा अक्षर जिसका उच्चारण स्वयं होता है।
उच्चारण काल अथवा मात्रा के आधार पर स्वर निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –
1. ह्रस्व 2. दीर्घ 3. प्लुत
यहाँ पर इनको निम्नलिखित विवरण के साथ समझ सकते हैं:
1. ह्स्व
ह्रस्व स्वर की संख्या पाँच है – अ, इ, उ, ऋ, लु। इनको मूलस्वर भी कहते हैं और इनके उच्चारण में कम से कम समय लगता है। इसके उच्चारण में केवल एक मात्रा का समय लगता है।
2. दीर्घ
इन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दुगुना समय लगता है। इन स्वरों की संख्या आठ है। – आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ,/ इनसे प्रथम चार ह्रस्व स्वर का उच्चारण में दो मात्राओं जितना समय लगाने से वे दीर्घ स्वर बन जाते हैं तथा शेष चार स्वर संयुक्त या मिश्र कहलाते हैं। ये दो अलग-अलग स्वरों के मिलने से बनते हैं। जैसे – अ और इ = ए
अ और उ = ओ अ और ए = ऐ
अ और ओ = औ
3. प्लुत
ऐसे शब्द जिनके उच्चारण में दो या दो से अधिक मात्राओं का समय लगता है। अर्थात जिन स्वरों को खींचकर बोलना पड़ता है, तो उन स्वरों में अधिक समय लगता है। प्लुत स्वरों को दिखाने के लिए तीन मात्राओं का घोतक (s) अंग्रेजी के एस अक्षर के आकार का प्रयोग किया जाता है।
व्यंजन
ऐसे वर्ण जो किसी दूसरे स्वर की सहायता से उच्चारित होते है तो उनको व्यंजन कहते हैं।उच्चारण काल अथवा मात्रा के आधार पर व्यंजन तीन प्रकार के होते हैं
1. स्पर्श
2. अन्त:स्थ
3. ऊष्म (घर्षक)
इनका विवरण निम्नलिखित है:
1. स्पर्श
| ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भी भाग को स्पर्श करती है व वायु कुछ क्षण के लिए रूक कर झटके से बाहर निकलती है, तो उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। “क’ से ‘म” तक के 25 वर्ण स्पर्श व्यंजन कहलाते हैं।
क वर्ग- क, ख, ग, घ, ङ,
च वर्ग- च, छ, ज, झ, ञ
ट वर्ग- ट, ठ, ड, ढ, ण ।
त वर्ग- त, थ, द, ध, न
प वर्ग- प, फ, ब, भ, म
2, अन्तःस्थ
ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय वायु को रोककर कम शक्ति बाहर निकालते हैं तो उन व्यजनों को अन्त:स्थ कहते हैं। इन वर्गों की संख्या चार है। य, र, ल, व।
3. ऊष्म
ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय वायु को धीरे-धीरे रोककर रगड़ उत्पन्न करके निकाला जाता है, तो उन व्यंजनों को ऊष्म या घर्षक व्यंजन कहते हैं। इन वणों की संख्या च । श, ष, स, है।
शुद्ध उच्चारण
नागरी भाषा में प्रत्येक ध्वनि के लिए एक निश्चित अक्षर होता है तथा उनका सटीक उच्चारण : होता है। अगर उच्चारण पर बल न दिया हो तो वहाँ पर उच्चारण दोष उत्पन्ना होता है। इस दोष के कारण भाषा का रूप विकृत हो जाता है। उस भाषा का निश्चित रूप नहीं बन पाता है। हिन्दी भाषा का ध्वनि तत्व बड़ा ही वैज्ञानिक है। हिन्दी भाषा में हम जो लिखते है उसको वैसा ही बोला जाता है। उच्चारण भाषा का ही पक्ष होता है। अन्य भाषा के रूप में हिन्दी शब्दों के उच्चारण में काफी अन्तर पाया जाता है। शुद्ध उच्चारण का अर्थ होता है ध्वनि का विशेष ध्यान रखते हुए शब्दोउच्चारण करना।
शुद्ध उच्चारण
शिक्षित, दशरथ, कवि, रावण, कृपालु, पति, यमराज
अशुद्ध उच्चारण
सिक्षित, दसरत, कवी, रावन, कृपालू, पती, जमराज
सामान्य अशुद्धियाँ
कक्षा में पढ़ते समय बालक निम्न प्रकार की अशुद्धियाँ करते रहते हैं1. क्षेत्रीय का छत्री बोलना। इसमें स्वर लोप है। 2. स्थान को अस्थाना बोलना। स्वरागम 3. “जेन्द्र” को बढ़ाकर बरजेन्दर। स्वर-भक्ति 4. “अमृत आ अम्रित”। ऋ का अशुद्ध उच्चारण
5. इ, ई, उ, ऊ, न, ण की अशुद्धियाँ जैसे- “पति को पती”, बोली को बोलि”, कृपालु को कृपालू’, उदाहरण को उदाहरन”, कहना को कहणा”।
6. “ओ का औ”, घ को क”, “क्ष को छ”, “श को ष” कहना *और को ओर”गोशला का गौशला”, “घर को द्यर”, ‘छात्र को क्षात्र”, ‘कक्ष को कच्छ”, प्रकाश को प्रकाष”, ‘विषय को विशय”।
7. ‘ब” को व, व, ड., ढ को अन्तर न करना। ‘बहुत को बहुत”, ‘वन को
बन’, ‘गढ”, “पढ़ना को पड़ना”।
। 8. “त” को थ, द को ध आदि कहना जैसे- ” भारत को भरत”, ”विद्यार्थी को विध विद्दार्थी”।
9. डू व ड का भ्रम जैसे- गुड़ का गुड”।
10. ढ व ढ़ का भ्रम जैसे- “पढ़ाई का पढाई’।
11. य और ज का अन्तर ना करना जैसे- यमराज को जमराज” कहना।
12. “स” को श, ज्ञ को भ्य” जैसे- “सुशील को शुशील”, “किशन को किसन”, ज्ञान को ग्यान” आदि कहना।।
13. अनुनासिकता की अशुद्धि जैसे- “नियमों को नियमो”, ”जोड़ते को जोडतें’ आदि।
| 14. वर्ण विपर्ण की अशुद्धि जैसे- ” आदमी को आमदी”, “मतलब को मतबल”, हकलाना को हलकाना”, “कमरा को करमा’ आदि कहना।
15. संयुक्त वर्णो के उच्चारण में आदि अथवा मध्य में किसी स्वर का आगामक र लेना जैसे- ‘स्कूल को सकूल’, ‘धर्म को धरम” कहना।
| 16. शब्दांश विपर्यय- जैसे ”ईद का चांद का चांद को ईद होना” तथा ‘दांतों तले अंगुली दबाना को अंगुली तले दांत दबाना” कहना।
17. दीर्घ स्वर को ह्रस्व तथा ह्रस्व को लोप कर देना जैसे- सामान को समान”, जवाब को ज्वाब” आदि कहना।
18. न्यूनाधिक गति जैसे किसी शब्द वाक्य या वाक्य खण्ड को शीघ्रता से बोलना या देर तक र्वीच कर बोलने से भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
19. हकलाना, तुतलाना या हड़बड़ाहट में त त त तुम, क क क क्या खाओगे?
20. जैसे:- जिह्वा, ओष्ठ, तालु, दांत आदि के दोष के कारण भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
21.अत्यधिक भय, शोक, खुशी, शंका अथवा दुर्व्यवहार आदि के कारण भी उच्चारण की अशुद्धि हो जाती है।
22. अध्यापक द्वारा निर्देशन की कमी के कारण भी बालकों के उच्चारण के दोष बने रहते हैं।
23. स्थानियों बोलियों के प्रभाव के कारण भी उच्चारण दोष आ जाते हैं।
अशुद्ध उच्चारण के कारण
इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
1. अज्ञान- अज्ञानता के कारण उच्चारण लेखन शब्द-रचना व रूप रचना की भूलें होती हैं।
अनुगृहीत को अनुग्रहीत” आदि। जैसे- “जबरदस्त को जबरजस्त”,
2. अक्षरों और मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान- बालकों को जब अक्षरों के स्पष्ट उच्चारण का ज्ञान नहीं होता तो वे बोलने और पढ़ने में भी अशुद्धियाँ करते हैं। मात्राओं का स्पष्ट ज्ञान भी न होने से उच्चारण की अशुद्धियाँ होती हैं।
3. भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों का प्रभाव- भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों के कारण भी । उच्चारण में अनेक दोष आ जाते है। पंजाब में रहने वाले क,ख,ग,घ, को का,खा,गा,घा पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाले कै, खै, गै, धै, बंगाली लोग को, खो, गो, बोलते हैं। बंगाली में ‘व’ न होने
के कारण हर स्थान पर ‘ब” का प्रयोग किया जाता है। गुजरात व मारवाड़ में ऐ, ओ, और बदले क्रमशः ए, ओ, और णा का प्रयोग होता है। मेवाड़ी में ‘‘स” का ‘‘ह” तथा तमिल में । का ”त” हो जाता है।
4. शारीरिक दोष- कभी-कभी शारीरिक विकार जैसे- जिह्व, ओष्ठ, तालु, दन्त आदि दोष के कारण भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं। हकलाने व तुतलाने का कारण भी अंग ही है।
5. शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण- शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण बालकों को अशुद्ध उच्चारण सिखाता है। यदि शिक्षक ‘‘शहर को सहर”, ‘शायद को सायद’ बोलेंगे तो बालक भी अशुद्ध बोलेंगे।
6. क्षेत्रिय बोलियों का प्रभाव- भाषा के उच्चारण पर क्षेत्रिय बोलियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। बालक खड़ी बोली के प्रभाव के कारण ‘क’ का उच्चारण “के” करने लगते हैं
भारत में तो हर पग पर बोली बदल जाती है, भाषा बदल जाती है और वेश बदल जाता है।
7. सामाजिक प्रभाव- भाषा अनुकरण से सीखी जाती है। यदि घर या समाज में अश उच्चारण किया जाता है तो बालक उन शब्दों का अशुद्ध उच्चारण ज्यों का त्यो अनुग्रहण कर लेता है। जैसे-डिब्बा को डब्बा, सीमेन्ट को सिमट कहना।।
8. भौगोलिक कारण- भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्तियों के स्वर तन्तु भिन्न-भिन्न होते हैं। अरब के निवासियों को अपने सिर पर सदैव एक कपड़ा लू और धूप से बचाव के लिए बाँधना पड़ता है। दिन-रात गले को कसा रखने से उनकी क, ख, ग की ध्वनि क। ख, ग हो जाती है।
9. मनोवैज्ञानिक कारण- कभी-कभी अत्यधिक प्रसन्नता, भय, शका तथा झिझक के। कारण शुद्ध उच्चारण नहीं हो पाता है। कभी-कभी अति शीघ्रता से बालेने से भी उच्चारण में व अशुद्धि हो जाती है।
10. आदत का प्रभाव- कभी-कभी बन कर बोलने वाला अथवा दुरभ्यास के कारण उच्चारण में अशुद्धि हो जाती है।
11. असावधानी- बहुत सी उच्चारण की अशुद्धियाँ असावधानी के कारण हो जाती हैं। जैसे- “आवश्यकता को अवश्यकता”, ‘प्रकट को प्रगट’, ‘ज्योत्सना को ज्योस्ना’ आदि।।
– उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर वर्गीकरण
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणामस्वरूप उत्पन्न व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार :
है।
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, धु, प, फ, ब, भ और क- सभी ध्वनियां स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले ‘स्पर्श-संघर्षी’ नाम दिया जाता था लेकिन । अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यंजनों के वर्ग में रखा जाता है। | इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खलते हैं। |
मौखिक व नासिक्य : व्यंजनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं। हिन्द
में ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है। जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें पंचमाक्षर’ भी कहा जाता है। उनके शान व अनुस्वार का प्रयोग सुविधाजनक माना जाता है। इन व्यंजनों को छोड़कर बाकी सभी व्यजा मौखिक हैं।
पार्शिवक: इन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास वायु जिह्वा के दोनों पार्शवों (बगल) से निकलती है। ‘ल’ ऐसी ही ध्वनि है।
अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। तथा श्वासवायु अनवरोधित रहती है। हिन्दी में य, व अर्धस्वर हैं। |
लुठित : इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा वर्ल्स भाग की ओर उठती है। हिन्दी में ‘र’ व्यंजन इसी तरह की ध्वनि है। ।
उत्क्षिप्त : जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा नोक कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे rआती है, उन्हें उत्थिप्त कहते हैं। डु और ढ़ ऐसे ही व्यंजन हैं।
घोष और अघोष
व्यंजनों के वर्गीकरण में स्वर-dतंत्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यंजनों को दो वर्गों मंत विभक्त किया जाता है- घोष और अघोष। जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। स्वरतंत्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात जिनके उच्चारण में कंपन नहीं होता उन्हें अघोष व्यंजन कहा जाता है।
घोष अघोष
ग, घ, ङ क , ख
ज, झ, ञ च , छ
ड, द , ण, ड़ , ढ़ ट , ठ
द, ध, न त , थ
ब, भ, म प, फ
य, र, ल , व , ह श, ष , स
प्राणता के आधार पर भी व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है- श्वास वायु। जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहा जाता है। पंच वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, डु, है – व्यंजन महाप्राण हैं। वर्गों के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ण अल्पप्राण है। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी वर्ग की हैं।
क्रियाकलाप
क्रियाकलाप-1
दाँत, जीभ, होट (ओष्ठ) आदि का भिन्न मुद्राओं से होकर अलग-अलग प्रकार की आवाज आती है, तो उसे ध्वनि कहा जाता है। अतः ध्वनि का उद्भव किस प्रकार से होता है? यह छात्रों को उनकी दाँत, जीभ, होट की क्रियायों के माध्यम से समझना से चाहिए।
क्रियाकलाप-2
छात्रों को किसी कविता के माध्यम से उच्चारण के तरीके को समझाना चाहिए।
*आओ, प्यारे तारो आओ
तुम्हें झुलाऊँगी झूले में,
तुम्हें सुलाऊँगी फूलों में,
तुम जुगनू से उड़कर आओ,
मेरे आँगन को चमकाओ।
*आंधी आई जोर-शोर से,
डाली टूटी है झकोर से,
उडा घोंसला बेचारी का,
किससे अपनी बात कहेगी?
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?*
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ?
कैसे यह घोंसला बनाएँ?
कैसे फूटे अंडे जोड़े?
किससे यह सब बात कहेगी,
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
अध्याय-सार
वर्गों के उच्चारण स्थान
वर्ण उच्चारण स्थान वर्ण ध्वनि का नाम
अ, आ, क वर्ग आदि कठ कोमल तालु कठ्य और विसर्ग
इ, ई, च वर्ग, य, श आदि तालु। तालव्य
ऋ, ट वर्ग, र ष आदि । मूद्धा मूद्धन्य
ल, त वर्ग, ल, स आदि दन्त दन्त्य
उ, ऊ, प वर्ग आदि। ओष्ठ ओष्ठ्य
अं, ङ, ञ, ण, न्, म् आदि । नासिका नासिक्य
ए ऐ आदि कंठ तालु कंठ तालव्य
ओ, औ आदि कंठ ओष्ठ कठोष्ठ्य
व आदि दन्त ओष्ठ दन्तोष्ठ्य
ह आदि स्वर यन्त्र अलिजिह्वा
1 हिन्दी वर्णमाला में दो प्रकार की ध्वनियाँ होती है- स्वर और व्यंजन।
ध्वनि के मूल तत्व
1. स्पष्टता ।
2. सुश्रव्यता
3. तरंगता
4. सार्थकता
5. शुद्धता
वर्ण जिनके उच्चारण के समय कम वायु बाहर निकलने वह अल्पप्राण वर्ण कहलाते वर्ण जिनके उच्चारण के समय अधिक वायु बहार निकले वह माहाप्राण वर्ण कहलाते
व्यंजन तीन प्रकार के होते है
1. स्पर्श । । 2. अन्तः स्थ । 3. ऊष्म (घर्षक)
* अशुद्ध उच्चारण के कारण
1. अज्ञान
2. अक्षरों और मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान
3. शारीरिक दोष
4. शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण
5. सामाजिक प्रभाव
प्रश्नावली
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. स्वर क्या है?
2. स्पर्श व्यंजन क्या है?
3. ध्वनि का शाब्दिक अर्थ क्या है?
4, ध्वनि के कितने पक्ष होते हैं?
5. ध्वनि के किन्हीं दो मूल तत्व लिखिए।
6. घोष क्या है?
7. महाप्राण वर्ण क्या है?
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. ध्वनि के मूल तत्वों का वर्णन करो। ,
2.उच्चारण के अनुसार वर्षों के अन्तर स्पष्ट करो। । 3.अल्पप्राण और महाप्राण वर्ण को उदाहरण सहित समझाओ।
4. अनुनासिक स्वर क्या है ?
5. स्वर के भेदों को परिभाषित करो।
6.व्यंजन के भेदों को परिभाषित करो।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. ‘आवाज’ किसका शाब्दिक अर्थ है?
(ब) व्यंजन (अ) स्वर
(द) वर्ण (स) ध्वनि
2. अ, ई, उ और ऋ हैं –
(ब) दीर्घ (अ) ह्रस्व
(द) कोई नहीं (स) ह्रस्व व दीर्घ
3. इ, ई, उ, ऊ –
(ब) अर्द्धसंवृत्त (अ) संवृत्त
(द) अर्द्धविवृत (स) विवृत
4. अल्पप्राण वर्ण हैं –
(ब) घ छ झ (अ) क, ग, डु
(द) कोई नहीं (स) अ तथा ब।
5. आँख, साँस, बाँस, ईट, चींटी आदि हैं –
(ब) महाप्राण वर्ण (अ) अल्पप्राण वर्ण
(द) अ,ब तथा स (स) अनुनासिक स्वर
6. स्वर के प्रकार है।
(ब) दीर्घ (द) कोई
(अ) ह्रस्व । (स) अ तथा ब
7. व्यंजन के प्रकार हैं – (अ) स्पर्श (स) ऊष्म
(ब) अन्त:स्थ (द) अ,ब तथा स (अ) स्पर्श (स) ऊष्म
(ग) अपनी मातृभाषा के प्रभाव के कारण साहित्यिक भाषा के बोलने की शैली का प्रभावित होना, आदि।
विभिन्न लोग या विभिन्न समुदाय एक ही शब्द को अलग-अलग तरीके से बोलते है। किसी शब्द को बोलने का ढंग कई कारकों पर निर्भर करता है। इन कारकों में प्रमुख हैं। किस क्षेत्र में व्यक्ति रहकर बड़ा हुआ है, व्यक्ति में कोई वाक-विकार है या नहीं, व्यक्ति का सामाजिक वर्गय व्यक्ति की शिक्षा, आदि।
देवनागरी आदि लिपियों में लिखे शब्दों का उच्चारण नियत होता है किन्तु रोमन, उर्द आ लिपियों में शब्दों की वर्तनी से उच्चारण का सीधा सम्बन्ध बहुत कम होता है। इसलिये अंग्रेजी फ्रेंच आदि भाषाओं के शब्दों के उच्चारण को बताने के लिये अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) लिपि या आडियो फाइल या किसी अन्य विधि का सहारा लेना पड़ता है। किन्त हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली आदि के शब्दों की वर्तनी ही उनके उच्चारण के लिये पर्याप्त है।
परिचय
उच्चारण के अंतर्गत प्रधानतया तीन बातें आती हैं :
1. ध्वनियों, विशेषतया स्वरों में ह्रस्व दीर्घ का भेद,
2. बलात्मक स्वराघात,
3. गीतात्मक स्वराघात।
इन्हीं के अंतर से किसी व्यक्ति या वर्ग के उच्चारण में अंतर आ जाता है। कभी-कभी ४ | वनियों के उच्चारणस्थान में भी कुछ भेद पाए जाते हैं।
उच्चारण के अध्ययन का व्यावहारिक उपयोग साधारणतया तीन निम्नलिखित क्षेत्रों में किया जाता है।
1. मातृभाषा अथवा विदेशी भाषा के अध्ययन अध्यापन के लिए, 2. लिपिहीन भाषाओं को लिखने के निमित्त वर्णमाला निश्चित करने के लिए,
3. भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण की विशेषताओं को समझने तथा उनका तुलनात्मक अध् ययन करने के लिए। ।
यद्यपि संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं के उच्चारण में समानता का अंश अधिक पाया जाता है, तथापि साथ ही प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कुछ विशेषताएँ भी मिलती हैं, जैसे भारतीय भाषाओं की मूर्धन्य ध्वनियाँ ट् ठ् ड् आदि, फारसी अरबी की अनेक संघर्षी ध्वनियाँ जेसे ख ग ज आदि, हिंदी की बोलियों में ठेठ ब्रजभाषा के उच्चारण में अर्धविवृत स्वर ऐ, ओं, भोजपुरी में शब्दों के उच्चारण में अंत्य स्वराघात।
भाषाओं के बोले जानेवाले रूप अर्थात उच्चारण को लिपिचिह्नों के द्वारा लिखित रूप दिया जाता है, तथापि इस रूप में उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो पाता है। वर्णमालाओं का आविष्कार प्राचीनकाल में किसी एक भाषा को लिपिबद्ध करने के लिए हुआ था, किंतु आज प्रत्येक वर्णमाला अनेक संबद्ध अथवा असंबद्ध भाषाओं को लिखने में प्रयुक्त होने लगा है जिनमें अनेक प्राचीन ध्वनियाँ लुप्त और नवीन ध्वनियाँ विकसित हो गई हैं। फिर, प्रायः वर्णमालाओं में हृस्व, दीर्घ, बलात्मक स्वराघात, गीतात्मक स्वराघात आदि को चिह्नित नहीं किया जाता। इस प्रकार भाषाओं के लिखित रूप से उनकी उच्चारण संबंधी समस्त विशेषताओं पर प्रकाश नहीं पड़ता।
प्रचलित वर्णमालाओं के उपर्युक्त दोष के परिहार के लिए भाषाविज्ञान के ग्रंथों में रोमन लिपि के आधार पर बनी हुई अंतरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक लिपि (इंटरनैशनल फोनेटिक स्क्रिप्ट) का प्रायः प्रयोग किया जाने लगा है। किंतु इस लिपि में भी उच्चारण की समस्त विशेषताओं का समावेश नहीं हो सका है। इनका अध्ययन तो भाषा के ‘टेप रिकार्ड’ या ‘लिंग्वाफोन’ की सहायता से ही संभव होता है।
। भाषा के लिखित रूप का प्रभाव कभी-कभी भाषा के उच्चारण पर भी पड़ता है, विशेषतया ऐसे वर्ग के उच्चारण पर जो भाषा को लिखित रूप के माध्यम से सीखता है जैसे हिंदीभाषी ‘वह’ को प्रायः ‘वो’ बोलते हैं, यद्यपि लिखते ‘वह’ हैं। लिखित रूप के प्रभाव के कारण अहिंदीभाषी सदा ‘वह’ बोलते हैं। ।
प्रत्येक भाषा के संबंध में आदर्श उच्चारण की भावना सदा वर्तमान रही है। साधारणतया प्रत्येक भाषाप्रदेश के प्रधान राजनीतिक अथवा साहित्यिक केंद्र के शिष्ट नागरिक वर्ग का उच्चारण आदर्श माना जाता है। किंतु यह आवश्यक नहीं है कि इसका सफल अनुकरण निरंतर हो सके। यही कारण है कि प्रत्येक भाषा के उच्चारण में कम या अधिक मात्रा में अनेकरूपता रहती ही है।
| किसी भाषा के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन करने या कराने के लिए ध्वनिविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। प्रयोगात्मक ध्वनिविज्ञान की सहायता से उच्चारण की विशेषताओं का अत्यंत सूक्ष्म विश्लेषण संभव हो गया है। किंतु उच्चारण के इस वैज्ञानिक विश्लेषण के कुछ ही अंशों का व्यावहारिक उपयोग संभव हो पाता है।
स्पष्टता- बोलने में स्पष्टता हो तथा सुनने वाला सुनकर अर्थग्रहण कर सके यहाँ यह आवश्यक है।
सुश्रव्यत्ता- उपस्थित समुदाय तक आवाज तथा स्वर पहुँचने चाहिए अर्थात् वाणी न बहुत तेज हो न बहुत धीमी चाहिए।
तरंगता- अवश्य ही ध्वनि में आरोहावरोह होना चाहिए। एक ही प्रकार से निरन्तर बोलने पर श्रोता ऊब सकते हैं तथा अर्थग्रहण की दृष्टि से स्वराघात, बलाघात की आवश्यकता होती है, यही तरंगता कहलाती है। |
सार्थकता- वाणी सार्थक हो-अनावश्यक ध्वनि विस्तार न हो, शब्दों की अनावश्यक आवृत्ति न हो इसका ध्यान रखना चाहिए।
शुद्धता- ध्वनि का शुद्ध उच्चारण समाज द्वारा मान्य एवं परिष्कृत होना चाहिए। ध्वनियों के विषय में वर्तमान स्थिति ऋ- हिन्दी शब्दों से ऋ प्रायः लुप्त हो गया है केवल तत्सम शब्दों में ऋ की ध्वनि प्राप्त होती है। ‘व’- दन्त्योष्ठ ध्वनि है क्योंकि नीचे का होठ ऊपर के दाँतों के पास प्रश्वास रोकता है। “ष’- का उच्चारण अब ‘श’ हो रहा है- वर्तनी में भी कई जगह तलव्य ‘श’ का प्रयोग है। ड़े, ढु- हिन्दी भाषा में अन्य भाषा की ध्वनियाँ हैं- ये उत्क्षिप्त हैं।
संयुक्त व्यंजन क्ष, त्र, ज्ञ में प्रत्येक में दो व्यंजन हैं:
क्ष= क् + ष् + अ + त्र = त् + र् + अ + I ज्ञ = ज् + ञ् + अ।
पर चिंतन एवम् मनन ।
न ही भाषा
का विशेष महत्व व्य व्याकरण की
ति पर ध्यान न दिया
बोलने व बोलने में शब्दों के उच्चारण, वाक्य की रचना और आवाज में उतार चढाव का विशेष होता है। अगर बोलते समय शब्द का शुद्ध उच्चारण नहीं किया गया,या वाक्य व्याकरण दृष्टि से अशुद्ध रह गया या बोलने में उचित बल, आरोह-अवरोह, की गति पर ध्यान न दिया गया तो बोलने वाले की बात समझने में परेशानी होगी। बोलचाल में प्रभाव तभी आ सकता। जब वक्ता का कथन स्वाभाविक और अवसर के अनुकूल हो। बोलने में विचार और भाषा की स्पष्टता होना जरूरी है।
सुनने और बोलने को अलग अलग करके देखने की कल्पना भी नहीं की जा सकती और बोलना एक दूसरे पर निर्भर होते हैं। बच्चे की भाषा का अधिकतर भाग उसके श्रवण । की देन होता है। मौखिक कौशल द्वारा वह भाषा का अभ्यास और पुनः रचना करता है। कौशल तभी कार्य करता है जब कोई वाचन कौशल का उपयोग कर रहा हो। जब कोई स्वर्ग बोल रहा हो तो भो श्रवण कौशल साथ साथ चलता रहता है। बोलने और सुनने के इस अन्तर्स को हम घर स्कूल मोहल्ले आदि किसी भी स्थान पर देख सकते हैं। घर पर, विशेष रूप से परिवारों में, सुनने और बोलने के भरपूर अवसर बच्चों को मिलते हैं। वे आदेश, निर्देश अन | सलाह आदि को सुनकर उनके अनुसार कार्य करते हैं। वे प्रश्नों के उत्तर देते हैं, तथा दूसरों को अ
विचार, इच्छाएँ और डर बताते हैं । |
खेलकूद के दौरान सुनने और बोलने के बीच के अटूट सम्बन्ध को सहज ही पहचाना जा सकता है। बच्चे एकदूसरे की बाते सुनकर और सुनाकर खेल के नियम बनाते हैं और उनके अनुसार कार्य करते हैं । कक्षा में सुनने और बोलने की अभिन्नता को और अधिक औपचारिक रूप से देखा जा सकता है । हमारी शिक्षा व्यवस्था मुख्य रूप से सुनने और बोलने पर ही आधारित है।
बच्चे आमतौर पर सुनने और बोलने के दौरान निम्न प्रक्रियाएं करते दिखाई दे सकते हैं ..
• जिस चीज पर अभी तक ध्यान नहीं दिया, उस पर ध्यान देना,
• उसे मोटे तौर पर या बारीकी से देखना,
• अपने अपने निरीक्षणों का आदान प्रदान करना, ।
• निरीक्षणों को क्रमबद्धता से लगाना,
• दूसरे के निरीक्षण को चुनौती देना,
• निरीक्षण के आधार पर तर्क करना,
• भविष्यवाणी करना,
• किसी पिछले अनुभव को याद करना,
• दूसरे की भावनाओं या उसके अनुभवों की कल्पना करना,
• किसी काल्पनिक स्तिथि में स्वयं की भावनाओं की कल्पना करना।
• कक्षा में बच्चे शिक्षक और साथियों की बातचीत को सुनते हैं और उन्हें अपनी बातें बताते है
वर्गों की संज्ञाएँ
स्पर्श व्यंजन क से म तक (क, च, ट, त, प वर्ग)
अर्द्ध स्वर य, व
अन्तस्थ य, र, ल, व
ऊष्मा श, ष, स
महाप्राणसंयुक्त व्यंजन क्ष, त्र , ज्ञ
ध्वनियों का वर्गीकरण
हस्व व दीर्घ के अनुसार ध्वनियों का वर्गीकरण निम्नलिखित है
ह्रस्व अ, इ, उ, ऋ
दिर्घ आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
जिह्वा (जीव) के अनसार
संवृत्त इ, ई, उ, ऊ
असंवृत्त ए, ओ
अदविवृत ऐ, ओ, अ
विवृत आ
तालु- जब उच्चारण करते समय जीभ तालु से छूती है, ऐसे वणों का उच्चारण स्थान तालु होता है। जैसे- इ, ई, च, छ, ज, झ, ञ, य, श। |
मूर्धा- जब उच्चारण करते समय जीभ दाँतों के ऊपरी भाग को स्पर्श करती है, ऐसे वर्ण मधे । से उच्चारित कहलाते हैं। जैसे- ऋ, ठ, ड, ढ, ण, र, ष।
दन्त्य- जब वर्गों का उच्चारण करते समय जीभ दाँतों का स्पर्श करें, वे वर्ग दन्त्य कहलाते | हैं। जैसे- त, थ, द, ध, न, ल, स।
ओष्ठ- जिन वर्णो के उच्चारण करते समय ओष्ठ आपस में मिल जाते हैं, वे वर्ण ओष्ठ उच्चारण वाले कहे जाते हैं। जैसे- प,फ, ब, भ, म, उ, ऊ।।
नासिका- जिन वर्णो के उच्चारण में नाक भी सहायक होती है, वे प्रत्येक वर्ग के पंचम वर्ण इसके अन्तर्गत आते हैं। जैसे- ड., ज, ण, न, म।।
अघोष वर्ण- जब वर्गों के उच्चारण करते समय वायु स्वर तात्रया के बिना रगड़ खा आसानी से निकलती है, व अघोष वर्ण कहलाते हैं। क, ख , च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, प, स।
अल्पप्राण वर्ण
ऐसे वर्ण जिनके उच्चारण के समय कम वायु बाहर निकले।
जैसे – क ग ड़., च ज ञ, ट ड ण, त द न, प ब म, य र ल व, य अ आ इ ई, उ ऊ ए ऐ : ऋ ।
महाप्राण वर्ण
ऐसे वर्ण जिनके उच्चारण के समय अधिक वायु बाहर निकले। जैसे -ख घ छ झ ठ ढ थ ध फ भ श ष ह तथा विसर्ग।
अनुनासिक स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण के समय वायु मुख विवर के साथ नाक से भी निकलती है तो स्वर अनुनासिक स्वर कहलाते हैं। इन स्वरों में चन्द्र बिन्दु का प्रयोग होता है। यदि शिरों रेखा ऊपर चन्द्र बिन्दु के साथ किसी मात्रा का प्रयोग हो रहा हो तो चन्द्रबिन्दु के स्थान पव केवल (.) प्रयोग होता है।
जैसे :
आँ – आँख, साँस, बाँस।
ई – ईट, चींटी, छींख ।
ॐ – ऊँट, ऊँचाई, उँगली।
व्यंजनों में ड्. ज्, ण् व्यंजनों का प्रथम वर्ण के रूप में प्रयोग नही होता है। वर्ण के पंचम पांच वर्ण (ड्., ३, ण, न, म्) अनुनासिक व्यंजन हैं, इनका प्रयोग (.) अनुस्वार के रूप में किया जाता है। ये स्वर के बाद के प्रयोग में आते हैं। इनका लिपि रूप (-) है। पांचों अनुनासिक व्यंजनों का विकल्प से लिपि चिह्न अनुस्वार (-) रूप होता है। इनके प्रयोग के आगे जिस वर्ग का व्यंजन होता हैं, अनुस्वार उस वर्ग के पंचम वर्ण का लिपि चिह्न माना जाता है। जैसे- (पंखा, गंगा, दिनांक), सम्बन्ध (संबंध), पन्त (पंत), कण्टक (कंटक), पम्प (पंप)।
‘र के चार लिपि रूप हैं- ‘र’ । ‘ (कर्म, कर्म, प्रभाव, राष्ट्र) निम्नांकित संयुक्ताक्षरों में स्वर व्यंजन का क्रम देखिए
द्धृ= द्+ व्+ अ ध्य=ध्+ य्+ अ श्री= श्+ र्+ ई
प्र= प्र+ र्+ अ द्ध= ध+ द्+ अ श्व= श्+ व्+ अ
र्म= र्+ म्+ अ ह्= ह्+ न्+ अ द्ध= द्+ ऋ
घ= द्+ य्+ अ ह्= ह्+ व्+ अ गृ= ग्र+ ऋ
स्वर
स्वर का अर्थ होता है ऐसा अक्षर जिसका उच्चारण स्वयं होता है।
उच्चारण काल अथवा मात्रा के आधार पर स्वर निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –
1. ह्रस्व 2. दीर्घ 3. प्लुत
यहाँ पर इनको निम्नलिखित विवरण के साथ समझ सकते हैं:
1. ह्स्व
ह्रस्व स्वर की संख्या पाँच है – अ, इ, उ, ऋ, लु। इनको मूलस्वर भी कहते हैं और इनके उच्चारण में कम से कम समय लगता है। इसके उच्चारण में केवल एक मात्रा का समय लगता है।
2. दीर्घ
इन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दुगुना समय लगता है। इन स्वरों की संख्या आठ है। – आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ,/ इनसे प्रथम चार ह्रस्व स्वर का उच्चारण में दो मात्राओं जितना समय लगाने से वे दीर्घ स्वर बन जाते हैं तथा शेष चार स्वर संयुक्त या मिश्र कहलाते हैं। ये दो अलग-अलग स्वरों के मिलने से बनते हैं। जैसे – अ और इ = ए
अ और उ = ओ अ और ए = ऐ
अ और ओ = औ
3. प्लुत
ऐसे शब्द जिनके उच्चारण में दो या दो से अधिक मात्राओं का समय लगता है। अर्थात जिन स्वरों को खींचकर बोलना पड़ता है, तो उन स्वरों में अधिक समय लगता है। प्लुत स्वरों को दिखाने के लिए तीन मात्राओं का घोतक (s) अंग्रेजी के एस अक्षर के आकार का प्रयोग किया जाता है।
1. स्पर्श
2. अन्त:स्थ
3. ऊष्म (घर्षक)
इनका विवरण निम्नलिखित है:
1. स्पर्श
| ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भी भाग को स्पर्श करती है व वायु कुछ क्षण के लिए रूक कर झटके से बाहर निकलती है, तो उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। “क’ से ‘म” तक के 25 वर्ण स्पर्श व्यंजन कहलाते हैं।
च वर्ग- च, छ, ज, झ, ञ
ट वर्ग- ट, ठ, ड, ढ, ण ।
त वर्ग- त, थ, द, ध, न
प वर्ग- प, फ, ब, भ, म
2, अन्तःस्थ
ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय वायु को रोककर कम शक्ति बाहर निकालते हैं तो उन व्यजनों को अन्त:स्थ कहते हैं। इन वर्गों की संख्या चार है। य, र, ल, व।
3. ऊष्म
ऐसे व्यंजन जिनके उच्चारण के समय वायु को धीरे-धीरे रोककर रगड़ उत्पन्न करके निकाला जाता है, तो उन व्यंजनों को ऊष्म या घर्षक व्यंजन कहते हैं। इन वणों की संख्या च । श, ष, स, है।
शुद्ध उच्चारण
शिक्षित, दशरथ, कवि, रावण, कृपालु, पति, यमराज
अशुद्ध उच्चारण
सिक्षित, दसरत, कवी, रावन, कृपालू, पती, जमराज
सामान्य अशुद्धियाँ
कक्षा में पढ़ते समय बालक निम्न प्रकार की अशुद्धियाँ करते रहते हैं1. क्षेत्रीय का छत्री बोलना। इसमें स्वर लोप है। 2. स्थान को अस्थाना बोलना। स्वरागम 3. “जेन्द्र” को बढ़ाकर बरजेन्दर। स्वर-भक्ति 4. “अमृत आ अम्रित”। ऋ का अशुद्ध उच्चारण
5. इ, ई, उ, ऊ, न, ण की अशुद्धियाँ जैसे- “पति को पती”, बोली को बोलि”, कृपालु को कृपालू’, उदाहरण को उदाहरन”, कहना को कहणा”।
6. “ओ का औ”, घ को क”, “क्ष को छ”, “श को ष” कहना *और को ओर”गोशला का गौशला”, “घर को द्यर”, ‘छात्र को क्षात्र”, ‘कक्ष को कच्छ”, प्रकाश को प्रकाष”, ‘विषय को विशय”।
7. ‘ब” को व, व, ड., ढ को अन्तर न करना। ‘बहुत को बहुत”, ‘वन को
बन’, ‘गढ”, “पढ़ना को पड़ना”।
। 8. “त” को थ, द को ध आदि कहना जैसे- ” भारत को भरत”, ”विद्यार्थी को विध विद्दार्थी”।
9. डू व ड का भ्रम जैसे- गुड़ का गुड”।
10. ढ व ढ़ का भ्रम जैसे- “पढ़ाई का पढाई’।
11. य और ज का अन्तर ना करना जैसे- यमराज को जमराज” कहना।
12. “स” को श, ज्ञ को भ्य” जैसे- “सुशील को शुशील”, “किशन को किसन”, ज्ञान को ग्यान” आदि कहना।।
13. अनुनासिकता की अशुद्धि जैसे- “नियमों को नियमो”, ”जोड़ते को जोडतें’ आदि।
| 14. वर्ण विपर्ण की अशुद्धि जैसे- ” आदमी को आमदी”, “मतलब को मतबल”, हकलाना को हलकाना”, “कमरा को करमा’ आदि कहना।
15. संयुक्त वर्णो के उच्चारण में आदि अथवा मध्य में किसी स्वर का आगामक र लेना जैसे- ‘स्कूल को सकूल’, ‘धर्म को धरम” कहना।
| 16. शब्दांश विपर्यय- जैसे ”ईद का चांद का चांद को ईद होना” तथा ‘दांतों तले अंगुली दबाना को अंगुली तले दांत दबाना” कहना।
17. दीर्घ स्वर को ह्रस्व तथा ह्रस्व को लोप कर देना जैसे- सामान को समान”, जवाब को ज्वाब” आदि कहना।
18. न्यूनाधिक गति जैसे किसी शब्द वाक्य या वाक्य खण्ड को शीघ्रता से बोलना या देर तक र्वीच कर बोलने से भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
19. हकलाना, तुतलाना या हड़बड़ाहट में त त त तुम, क क क क्या खाओगे?
20. जैसे:- जिह्वा, ओष्ठ, तालु, दांत आदि के दोष के कारण भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
21.अत्यधिक भय, शोक, खुशी, शंका अथवा दुर्व्यवहार आदि के कारण भी उच्चारण की अशुद्धि हो जाती है।
22. अध्यापक द्वारा निर्देशन की कमी के कारण भी बालकों के उच्चारण के दोष बने रहते हैं।
23. स्थानियों बोलियों के प्रभाव के कारण भी उच्चारण दोष आ जाते हैं।
1. अज्ञान- अज्ञानता के कारण उच्चारण लेखन शब्द-रचना व रूप रचना की भूलें होती हैं।
अनुगृहीत को अनुग्रहीत” आदि। जैसे- “जबरदस्त को जबरजस्त”,
2. अक्षरों और मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान- बालकों को जब अक्षरों के स्पष्ट उच्चारण का ज्ञान नहीं होता तो वे बोलने और पढ़ने में भी अशुद्धियाँ करते हैं। मात्राओं का स्पष्ट ज्ञान भी न होने से उच्चारण की अशुद्धियाँ होती हैं।
3. भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों का प्रभाव- भिन्न-भिन्न भाषा भाषियों के कारण भी । उच्चारण में अनेक दोष आ जाते है। पंजाब में रहने वाले क,ख,ग,घ, को का,खा,गा,घा पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाले कै, खै, गै, धै, बंगाली लोग को, खो, गो, बोलते हैं। बंगाली में ‘व’ न होने
के कारण हर स्थान पर ‘ब” का प्रयोग किया जाता है। गुजरात व मारवाड़ में ऐ, ओ, और बदले क्रमशः ए, ओ, और णा का प्रयोग होता है। मेवाड़ी में ‘‘स” का ‘‘ह” तथा तमिल में । का ”त” हो जाता है।
4. शारीरिक दोष- कभी-कभी शारीरिक विकार जैसे- जिह्व, ओष्ठ, तालु, दन्त आदि दोष के कारण भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं। हकलाने व तुतलाने का कारण भी अंग ही है।
5. शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण- शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण बालकों को अशुद्ध उच्चारण सिखाता है। यदि शिक्षक ‘‘शहर को सहर”, ‘शायद को सायद’ बोलेंगे तो बालक भी अशुद्ध बोलेंगे।
6. क्षेत्रिय बोलियों का प्रभाव- भाषा के उच्चारण पर क्षेत्रिय बोलियों का प्रभाव अवश्य पड़ता है। बालक खड़ी बोली के प्रभाव के कारण ‘क’ का उच्चारण “के” करने लगते हैं
भारत में तो हर पग पर बोली बदल जाती है, भाषा बदल जाती है और वेश बदल जाता है।
7. सामाजिक प्रभाव- भाषा अनुकरण से सीखी जाती है। यदि घर या समाज में अश उच्चारण किया जाता है तो बालक उन शब्दों का अशुद्ध उच्चारण ज्यों का त्यो अनुग्रहण कर लेता है। जैसे-डिब्बा को डब्बा, सीमेन्ट को सिमट कहना।।
8. भौगोलिक कारण- भिन्न-भिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्तियों के स्वर तन्तु भिन्न-भिन्न होते हैं। अरब के निवासियों को अपने सिर पर सदैव एक कपड़ा लू और धूप से बचाव के लिए बाँधना पड़ता है। दिन-रात गले को कसा रखने से उनकी क, ख, ग की ध्वनि क। ख, ग हो जाती है।
9. मनोवैज्ञानिक कारण- कभी-कभी अत्यधिक प्रसन्नता, भय, शका तथा झिझक के। कारण शुद्ध उच्चारण नहीं हो पाता है। कभी-कभी अति शीघ्रता से बालेने से भी उच्चारण में व अशुद्धि हो जाती है।
10. आदत का प्रभाव- कभी-कभी बन कर बोलने वाला अथवा दुरभ्यास के कारण उच्चारण में अशुद्धि हो जाती है।
11. असावधानी- बहुत सी उच्चारण की अशुद्धियाँ असावधानी के कारण हो जाती हैं। जैसे- “आवश्यकता को अवश्यकता”, ‘प्रकट को प्रगट’, ‘ज्योत्सना को ज्योस्ना’ आदि।।
– उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर वर्गीकरण
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणामस्वरूप उत्पन्न व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार :
है।
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है। क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, धु, प, फ, ब, भ और क- सभी ध्वनियां स्पर्श हैं। च, छ, ज, झ को पहले ‘स्पर्श-संघर्षी’ नाम दिया जाता था लेकिन । अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यंजनों के वर्ग में रखा जाता है। | इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खलते हैं। |
मौखिक व नासिक्य : व्यंजनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं। हिन्द
में ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है। जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें पंचमाक्षर’ भी कहा जाता है। उनके शान व अनुस्वार का प्रयोग सुविधाजनक माना जाता है। इन व्यंजनों को छोड़कर बाकी सभी व्यजा मौखिक हैं।
अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। तथा श्वासवायु अनवरोधित रहती है। हिन्दी में य, व अर्धस्वर हैं। |
लुठित : इन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा वर्ल्स भाग की ओर उठती है। हिन्दी में ‘र’ व्यंजन इसी तरह की ध्वनि है। ।
उत्क्षिप्त : जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा नोक कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे rआती है, उन्हें उत्थिप्त कहते हैं। डु और ढ़ ऐसे ही व्यंजन हैं।
घोष और अघोष
व्यंजनों के वर्गीकरण में स्वर-dतंत्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस दृष्टि से व्यंजनों को दो वर्गों मंत विभक्त किया जाता है- घोष और अघोष। जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्वरतंत्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं। स्वरतंत्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात जिनके उच्चारण में कंपन नहीं होता उन्हें अघोष व्यंजन कहा जाता है।
घोष अघोष
ग, घ, ङ क , ख
ज, झ, ञ च , छ
ड, द , ण, ड़ , ढ़ ट , ठ
द, ध, न त , थ
ब, भ, म प, फ
य, र, ल , व , ह श, ष , स
प्राणता के आधार पर भी व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है। प्राण का अर्थ है- श्वास वायु। जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहा जाता है। पंच वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, डु, है – व्यंजन महाप्राण हैं। वर्गों के पहले, तीसरे और पांचवे वर्ण अल्पप्राण है। क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी वर्ग की हैं।
दाँत, जीभ, होट (ओष्ठ) आदि का भिन्न मुद्राओं से होकर अलग-अलग प्रकार की आवाज आती है, तो उसे ध्वनि कहा जाता है। अतः ध्वनि का उद्भव किस प्रकार से होता है? यह छात्रों को उनकी दाँत, जीभ, होट की क्रियायों के माध्यम से समझना से चाहिए।
क्रियाकलाप-2
छात्रों को किसी कविता के माध्यम से उच्चारण के तरीके को समझाना चाहिए।
*आओ, प्यारे तारो आओ
तुम्हें झुलाऊँगी झूले में,
तुम्हें सुलाऊँगी फूलों में,
तुम जुगनू से उड़कर आओ,
मेरे आँगन को चमकाओ।
*आंधी आई जोर-शोर से,
डाली टूटी है झकोर से,
उडा घोंसला बेचारी का,
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?*
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ?
कैसे यह घोंसला बनाएँ?
कैसे फूटे अंडे जोड़े?
किससे यह सब बात कहेगी,
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी ?
अ, आ, क वर्ग आदि कठ कोमल तालु कठ्य और विसर्ग
इ, ई, च वर्ग, य, श आदि तालु। तालव्य
ऋ, ट वर्ग, र ष आदि । मूद्धा मूद्धन्य
ल, त वर्ग, ल, स आदि दन्त दन्त्य
उ, ऊ, प वर्ग आदि। ओष्ठ ओष्ठ्य
अं, ङ, ञ, ण, न्, म् आदि । नासिका नासिक्य
ए ऐ आदि कंठ तालु कंठ तालव्य
ओ, औ आदि कंठ ओष्ठ कठोष्ठ्य
व आदि दन्त ओष्ठ दन्तोष्ठ्य
ह आदि स्वर यन्त्र अलिजिह्वा
ध्वनि के मूल तत्व
1. स्पष्टता ।
2. सुश्रव्यता
3. तरंगता
4. सार्थकता
5. शुद्धता
वर्ण जिनके उच्चारण के समय कम वायु बाहर निकलने वह अल्पप्राण वर्ण कहलाते वर्ण जिनके उच्चारण के समय अधिक वायु बहार निकले वह माहाप्राण वर्ण कहलाते
व्यंजन तीन प्रकार के होते है
1. स्पर्श । । 2. अन्तः स्थ । 3. ऊष्म (घर्षक)
* अशुद्ध उच्चारण के कारण
1. अज्ञान
2. अक्षरों और मात्राओं का अस्पष्ट ज्ञान
3. शारीरिक दोष
4. शिक्षक का अशुद्ध उच्चारण
5. सामाजिक प्रभाव
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
2. स्पर्श व्यंजन क्या है?
3. ध्वनि का शाब्दिक अर्थ क्या है?
4, ध्वनि के कितने पक्ष होते हैं?
5. ध्वनि के किन्हीं दो मूल तत्व लिखिए।
6. घोष क्या है?
7. महाप्राण वर्ण क्या है?
2.उच्चारण के अनुसार वर्षों के अन्तर स्पष्ट करो। । 3.अल्पप्राण और महाप्राण वर्ण को उदाहरण सहित समझाओ।
4. अनुनासिक स्वर क्या है ?
5. स्वर के भेदों को परिभाषित करो।
6.व्यंजन के भेदों को परिभाषित करो।
(ब) व्यंजन (अ) स्वर
(द) वर्ण (स) ध्वनि
2. अ, ई, उ और ऋ हैं –
(ब) दीर्घ (अ) ह्रस्व
(द) कोई नहीं (स) ह्रस्व व दीर्घ
3. इ, ई, उ, ऊ –
(ब) अर्द्धसंवृत्त (अ) संवृत्त
(द) अर्द्धविवृत (स) विवृत
4. अल्पप्राण वर्ण हैं –
(ब) घ छ झ (अ) क, ग, डु
(द) कोई नहीं (स) अ तथा ब।
5. आँख, साँस, बाँस, ईट, चींटी आदि हैं –
(ब) महाप्राण वर्ण (अ) अल्पप्राण वर्ण
(द) अ,ब तथा स (स) अनुनासिक स्वर
6. स्वर के प्रकार है।
(ब) दीर्घ (द) कोई
(अ) ह्रस्व । (स) अ तथा ब
7. व्यंजन के प्रकार हैं – (अ) स्पर्श (स) ऊष्म
(ब) अन्त:स्थ (द) अ,ब तथा स (अ) स्पर्श (स) ऊष्म