सम्यक दर्शन तीर्थकरों के उपदेशों के प्रति पूर्ण श्रद्धाभाव रखना है, सी श्रद्धाभाव को सम्यक् दर्शन कहते हों।
सम्यक् चरित्र, सम्यक् दर्शन से सम्यक ज्ञान की प्राप्ति होती है। केवल सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं होता, अपितु उसका जीवन में आचरण करना भी जरूरी है।
सम्यक् चरित्र के लिए जैन दर्शन पाँच महाव्रतों (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्राचर्य) के पालन एवं चार कषायों (क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) के त्याग पर बल देता है।
प्रश्न 28. बौद्ध धर्म के संस्थापक कौन थे? इन्होंने अपना पहला उपदेश कहाँ दिया? इनके चार आर्य सत्य कौन कौन से हैं?
उत्तर- बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्म बुद्ध थे। इन्होने पना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया।
आर्य सत्य का अभिप्राय है- श्रेष्ठज्ञानियों के द्वारा निर्धारित सत्य, जिसे किसी भी तर्क द्वारा गलत न सिद्ध किया जा सकेओं। ये चार आर्य सत्य इस प्रकार हैं- दु:ख, दु:ख समुदय, दु:ख निरोध, दु:ख निरोध मार्म।
- दु:ख – बुद्ध ने कहा – सर्वदुखं दुखम् अर्थात् सब कुछ दु:खमय है। बुद्ध का कथन है- जन्म में दु:ख है, नाश में दु:ख है, रोग दु:खमय है, मृत्यु दु:खमय है। अप्रिय से संयोग दु:खमय है, प्रिय से वियोग दु:खमय है, इच्छित वस्तु को न पाना दु:ख है। महात्मा बुद्ध का यह भी मत है कि सुख भी वस्तुत: दु:ख ही है। सुख को प्राप्त करने में कष्ट है र यदि सुख प्राप्त हो भी जाये तो उसके जाने का भय बना रहता है, वह भी दु:ख है। सुख और दु:ख में कोई अन्तर नहीं है।
- दु:ख समुदय – यह विश्व दु:खमय ही नहीं है, अपितु उसका कारण भी है, क्योंकि वस्तु या घटना बिना किसी करण के नहीं हो सकती। बुद्ध का मत है कि दु:ख भी एक घटना है, दु:ख का भी कारण है, इसलिए उन्होंने दु:ख के कारण का विश्लेषण प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धान्त के माध्यम से किया है।
- दु:ख निरोध – तृतीय आर्य सत्य दु:ख निरोध या निर्वाण है। दु:ख काई न कोई कारण है। यदि दु:ख के कारण का अन्त हो जाये तो दु:ख का भी अन्त हो जायेगा अर्थात् जब कारण ही नहीं होगा तब कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी ? जब दु:खों का अन्त हो जाता है तब उस अवस्था को दु:ख निरोध अथवा निर्वाण कहा जाता है।
- दु:ख निरोध मार्ग – चौथे सत्य में बुद्ध ने बताया है कि दु:ख निरोध का उपाय है, जिसे दु:ख निरोध मार्ग कहते हैं। दु:ख निरोध मार्ग दु:ख के कारण का अन्त होने का मार्ग हैं, जिस पर चलने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। इस मार्ग को अष्टांगिक मार्ग भी कहा जाता है।
प्रश्न 29. वैदिक सभ्यता के निर्माता कौन थे? वैदिक सभ्यता में कितने आश्रम प्रचलित थे?
उत्तर – वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य थे। आर्यों की इस आश्रम व्यवस्था की जर्मन विदान ड्यूसन ने अत्यधिक प्रशंसा की है। इस व्यवस्था में मनुष्य की निर्धारित आयु के 100 वर्षा को चार भागों में बाँटकर निम्नलिखि चार आश्रम निर्धारित किए गए-
- ब्रह्राचर्य आश्रम – जीवन के प्रारम्भिक 25 वर्षों में व्यक्ति ब्रह्राचारी रहकर गुरू के आश्रम में शिक्षा प्राप्त करता था।
- गृहस्थ आश्रम – ब्रह्राचर्य आश्रम के पश्चात् व्यक्ति गृहस्थ व्यक्ति गृहस्थ आश्रम मे प्रवेश करता था। इस आश्रम में व्यक्ति विवाह कर वैयक्तिक जीवन का आनन्द लेते हुए 50 वर्ष की आयु तक परिवार में रहता था तथा वंशवृद्धि करता था।
- वानप्रस्थ आश्रम- 51 वर्ष की आयु से लेकर 75 वर्ष की आयु तक व्यक्ति गृहस्थ का भार अपने उत्तराधिकारियों को सौंपकर साधना में रत हो जाता था। यह क प्रकार से संन्यास आश्रम में प्रवेश करने का प्रशिक्षण था।
- संन्यास आश्रम – 75 वर्ष की आयु के पश्चात् व्यक्ति सन्यासी बनकर जीवन के बचे हुए दिन वनों में गुजारता था और कन्द मूल फल आदि खाकर परमात्मा का चिन्तन करते हुए मोक्ष प्राप्त करता था।