प्रश्न
- सभ्यता का अभिप्राय है-
- युग-युग की ऐश्वर्य कहानी
- मनुष्य के स्वाधीन चिन्तन की गाथा
- मानव के भौतिक विकास की विधायक गुण
- मानव को कलाकार बना देने वाली विशेषता
- ‘संस्कृति’ का तात्पर्य है-
- विशिष्ट जीवन-दर्शन से संतुलित जीवन
- आनन्द मनाने का एक विशेष विधान
- मानव की आत्मिक उन्नति का संवर्धक आन्तरिक गुण
- हर-युग में प्रासंगिक विशिष्टता
- संस्कृति का मूल स्वभाव है कि वह-
- एक समुदाय के जीवन में ही जीवित रह सकती है
- आदान-प्रदान से बढती है
- मनुष्य की आत्मा में विश्वास रखती है
- मानव-मानव में भेद नहीं रखती
- मानव की मानवता इसी बात में निहित है कि वह-
- अपने मन में विधमान विकारों पर नियन्त्रण पाने की चेष्टा करे
- सभ्यता की ऊँचाइयों को पाने का प्रयास करे
- अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के लिए कटिबद्ध रहे
- अपनी सभ्यता और संस्कृति का प्रचार करें
- संस्कृति सभ्यता से इस रूप में भिन्न है कि संस्कृति-
- एक आदर्श विधान है और सभ्यता यथार्थ होती है
- समन्वयमूलक है और सभ्यता नितांत मौलिक होती है
- सभ्यता की अपेक्षा स्थूल और विशाद होती है
- सभ्यता की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म होती है
(7)
यह एक सच्चाई है कि, निर्धनों और धनवानों दोनों में बेकार लोग होते हैं और परिश्रमी , निर्धन तथा कर्मशील धनवान भी होते हैं. अनेक भिखारी इतने सुस्त होते हैं कि जैसे उन्हें दस हजार की वार्षिक आय हो और कुछ अतिभाग्यशाली लोग अपने उद्देश्यों से भी अधिक व्यस्त होते हैं और बाहर बेकार की बातों में कोई रुचि नहीं रखते, क्योंकि व्यस्त और बेकार लोगों के बीच अन्तर समस्त पदों और स्थितियों के मनुष्यों में मानसिकता तथा अंतःप्रकृति से संबद्ध होता है. अमीरों और गरीबों दोनों में एक ऐसा कर्मशील परिश्रमी वर्ग होता है, जो निःशक्त और दुःखी रहता है. दोनों वर्गों में निकृष्टतर गलतफहमी उस दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य से दूसरे वर्ग के मूर्खों के बारे में सोचने लगते हैं. यदि व्यस्त धनवान लोग अपने ही वर्ग के बेकार धनवान लोगों की निगरानी करें और उन्हें फटकारें, तो उनमें सब ठीक चलता रहेगा और यदि व्यस्त निर्धन बेकार निर्धनों पर ध्यान दें और उन्हें बुरा-भला कहें, तो भी उनमें सब ठीक ही चलता है, किंतु प्रायः सब एक-दूसरे के दोषों को जाँचते हैं. एक परिश्रमी सम्पन्न व्यक्ति बेकार भिखारी के प्रति आक्रोश करता है तथा एक सुव्यवस्थित कार्यशील , किंतु निर्धन व्यक्ति धनवानों के भोग-विलास के प्रति अनुदार होता है. निर्धनों में कोई आचारहीन व्यक्ति ही धनवानों को अपना सहज शत्रु मानता है और धनवानों में भी कोई लम्पट व्यक्ति ही निर्धनों के दोषों और गलतियों के लिए अपशब्द प्रयोग करता है.
प्रश्न
- परिश्रमी धनवान व्यक्ति भिखारी से चिढता है, क्योंकि-
- वह भिक्षावृत्ति के अलावा कोई अन्य काम करने का प्रयास नहीं करता
- भिक्षावृत्ति समाज के लिए अभिशाप है
- कुछ भिखारी अपराधी प्रवृत्ति के हैं
- भिखारी सामाजिक वातावरण को दूषित करते हैं
- मेहनती निर्धन मनुष्य को किस बात से चोट पहुँचती है?
- धनवानों द्वारा किया जाने वाला निर्धनों का शोषण देखकर
- धनवानों के भोग-विलास को देखकर
- धनवानों द्वारा किए जाने वाले अभद्र व्यवहार को देखकर
- धनवानों की कंजूसी को देखकर
- परिश्रमी धनवान और परिश्रमी निर्धन द्वारा किसकी उपेक्षा होती है ?
- धनी वर्ग की
- बेकार वर्ग की
- मजदूर वर्ग की
- निर्धन वर्ग की
- धनवानों और निर्धनों में कौनसे दो वर्ग होते हैं?
- शोषक और शोषित वर्ग
- सवर्ण और दलित वर्ग
- पूंजीपति और श्रमिक वर्ग
- कर्मठ-परिश्रमी और बेकार वर्ग
- धनवान और निर्धन के मध्य गलतफहमी उत्पन्न होने का मुख्य कारण यह है कि–
- जब एक वर्ग के बुद्धिमान लोग, दूसरे वर्ग के मूर्खों के बारे में सोचने लगते हैं
- जब मुर्ख लोग विदानों की निदां करने लगते हैं
- धनवान व्यक्ति कम मजदूरी देकर अधिक काम लेना चाहता है
- धनी व्यक्ति निर्धनों को रोजगार देने का प्रयास नहीं करते
- निःशक्त और दुःखी रहने का क्या कारण है?
- रोगी होना
- बेकार होना
- वृद्ध होना
- विकलांग होना
- ‘व्यस्त’ शब्द का उपयुक्त विलोम कौनसा है?
- विश्रांत
- अभ्यस्त
- अव्यस्त
- अतिव्यस्त
- ‘निर्धन’ शब्द में कौनसा उपसर्ग है?
- निः
- नी
- नि
- निर्
- ‘बुरा-भला’ शब्द में कौनसा समास है?
- द्न्द समास
- दिगु समास
- कर्मधारय समास
- तत्पुरुष समास
- आक्रोश शब्द का सर्वाधिक उपयुक्त अर्थ है-
- दुःख से चीखना
- कर्कश स्वर में की जाने वाली भर्त्सना
- विरोध करना
- निन्दा करना
(8)
धर्म और सम्प्रदाय में कोई अन्तर है तो उसे उतना ही विशाल होना चाहिए. जितना कि आकाश और पाताल, कारण कि धर्म हमें उच्चादर्शों के प्रति श्रद्धावान बनाता है और इस बात की प्रेरणा देता है कि हमारा अंतःस्तल अंहकारपूर्ण नहीं, अहंशून्य होना चाहिए.जहाँ अहमन्यता होगी, विवाद और विग्रह वहीं पैदा होंगे. जहाँ सरलता होगी वहाँ सात्विकता पनपेगी. सरल और सात्विक होना दैवी विभूतियाँ हैं, जो इन्हें जितने अंशों मे धारण करता है, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे उस अनुपात में धार्मिक हैं. इसलिए यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण न होगा कि धर्म हमें देवत्व की ओर ले चलता है, जबकि सम्प्रदाय अधोगामी बनाता है. कट्टरवाद,उग्रवाद ये सभी सम्प्रदायवाद की देन हैं. साम्प्रदायिकता होने का अर्थ है-कूपमंडूक होना, अपने वर्ग एवं समूह की चिंता करना. इसके विपरीत धर्म हमें अधिक उदार बनाता है तथा आत्मविस्तार का उपदेश देता है. ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ यह इसी की शिक्षा है. इसलिए संसार में जितने धार्मिक पुरुष हुए हैं वे किसी एक वर्ग अथवा समुदाय तक ही सीमाबद्ध होकर नहीं रह गए, कितने ही अन्य मतावलंबियों को भी उन्होंने ऊँचा उठाया और आगे बढाया.संत कबीर यों जाति से मुस्लिम थे, पर उनके गुरु भी हिन्दू थे. मृत्यु के उपरांत कबीर की अन्तिम क्रिया दोनों समुदायों ने अपनी-अपनी रीति से सम्पन्न की थी. महात्मा बुद्ध भारतीय थे. उन्होंने जिस मतवाद की अनेक देश और अगणित जातियाँ थी. सबने भगवान बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण किया या यों कहें कि तथागत ने देश और जाति से ऊपर उठकर सभी को अपनाया था बात एक ही होगी. यह सिर्फ कबीर और बुद्ध की बात नहीं वरन् जितने भी धार्मिक पुरुष हुए हैं, सबने ऐसा ही किया. यह धर्म की विशेषता है.
प्रश्न
- उपर्युक्त गधांश का उपयुक्त शीर्षक है-
- धर्म और सम्प्रदाय
- भगवान बुद्ध का प्रभाव
- धर्म की विशेषता
- धर्म तथा आत्मविस्तार
- उपर्युक्त गधांश के अनुसार धर्म की मुख्य विशेषताएँ हैं-
- धर्म से अपने संप्रदाय के प्रति आस्था, कट्टरता में वृद्धि होती है
- धर्म हमें अहंशून्यता , सात्विकता और उदारता जैसे उच्चादर्शों के प्रति आस्थावान बनाता है
- धर्म द्वारा हमें कठोर परिश्रम,अनुशासन की शिक्षा मिलती है
- धर्म हमारी सभी मनोकामनाओं, इच्छाओँ को पूरा करता है
- साम्प्रदायिकता व्यक्ति को कूपमंडक कहा गया है, क्योंकि-
- वह लङाई-झगङा करने लगता है
- वह दंगे करवाता है
- वह अपने ही वर्ग और समूह की चिंता करता है
- वह धर्म प्रचार करता है
- उपर्युक्त गधांश के आधार पर धर्म और सम्प्रदाय में अन्तर है-
- धर्म से आस्था और सम्प्रदाय से अंधविश्वास पनपता है
- साम्प्रदायिकता व्यक्ति अपने धर्म की रक्षा करता है अतः सम्प्रदाय रक्षक होता है और धर्म रक्षित होता है
- धर्म से उग्रवाद और कट्टरवाद का जन्म होता है जबकि सम्प्रदाय उच्चादर्शों की ओर उन्मुख होता है
- धर्म हमें सरल, सात्विक, उदार बनाता है जबकि सम्प्रदाय उग्रवादी, कट्टरवादी और अधोगामी बनाता है
- विश्व के अनेक देशों और अगणित जातियों ने महात्मा बुद्ध का शिष्यत्व ग्रहण किया था, क्योंकि–
- महात्मा बुद्ध ने देश और जाति से ऊपर उठकर सभी को अपनाया था
- महात्मा बुद्ध ने चमत्कार दिखाया था
- महात्मा बुद्ध ने घोर तप किया था
- महात्मा बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था
(9)
सब प्रकार के शासन में चाहे धर्म शासन हो, चाहे राजशासन या संप्रदाय शासन, मनुष्य जाति के भय और लोभ से पूरा काम लिया गया है.दण्ड का भय और अनुग्रह का लोभ दिखाते हुए राज-शासन तथा नरक का भय और स्वर्ग का लोभ दिखाते हुए धर्म-शासन चलते आ रहे हैं.इनके द्वारा भय-लोभ का प्रवर्तन उचित सीमा के बाहर भी प्रायः हुआ है और होता रहा है. जिस प्रकार शासक वर्ग अपनी रक्षा और स्वार्थ-सिद्धि के लिए इनसे काम लेते आए हैं उसी प्रकार धर्म-प्रवर्तक और आचार्य अपने स्वरूप-वैचित्र्य की रक्षा और अपने प्रभाव की प्रतिष्ठा के लिए भी शासन की पहुँच प्रवृत्ति और निवृत्ति को जाग्रत रखने वाली शक्ति कविता है जो धर्म-क्षेत्र में भक्ति-भावना को जगाती रहती है. भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है. अपने मंगल और लोक के मंगल का संगम उसी के भीतर दिखाई पङता है.इस मंगल के लिए है उसी के बीच मनुष्य को अपने हृदय के प्रसार के लिए है उसी प्रकार हृदय भी रागात्मिका वृत्ति के प्रसार के लिए इसके बिना विश्व के साथ जीवन का सामंजस्य घटित नहीं हो सकता . जब मनुष्य के सुख और आनन्द के मेल शेष प्रकृति के सुख-सौन्दर्य के साथ हो जाएगा. जब उसकी रक्षा का भाव तृण-गुल्म, वृक्ष-लता, कीट-पतंग, सबकी रक्षा के भाव के साथ समन्वित हो जाएगा, तब उसके अवतार का उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा और वह जगत् का सच्चा प्रतिनिधि हो जाएगा. काव्य-योग की साधना इसी भूमि पर पहुँचने के लिए है.
प्रश्न
- शासन और कविता की पहुँच में अन्तर यह है कि एक व्यक्ति-
- को प्रवृत्ति की ओर ले जाता है, दूसरा निवृत्ति की ओर
- के सामाजिक जीवन को करता है, दूसरा धार्मिक जीवन को
- के बाहा व्यक्तित्व को प्रभावित करता है, दूसरा आतंरिक व्यक्तित्व को
- के भौतिक जीवन को प्रभावित करता है, दूसरा उसके मर्म को आघात पहुँचाता है
- शासन मनुष्य को इसलिए संचालित कर पाता है, क्योंकि-
- मनुष्य स्वभावतः कायर एवं लालची होता है
- मनुष्य अपना इहलोक और परलोक दोनों बनाना चाहता है
- लोभ और भय मनुष्य की वे कमजोरियाँ हैं जो सभी में समान रूप में पाई जाती हैं
- मनुष्य इहलोक में रहते हुए भी अपना परलोक भी बनाना चाहता है
- मनुष्य संसार के साथ तभी सामंजस्य स्थापित कर सकता है जब-
- सृष्टि स्वयं को उसके सुख में सुखी और दुःख में दुःखी अनुभव करे
- व्यक्ति अपने जीवन का सामंजस्य प्रकृति और पशु-पक्षी जगत् के साथ भी कर ले
- वह सम्पूर्ण जगत् के साथ प्रेमभाव की स्थिति में आ जाए
- वह अपने भाव क्षेत्र में सम्पूर्ण विश्व को समाविष्ट कर ले
- मनुष्य की काव्य-योग साधना तब पूरी होगी, जब वह-
- प्राकृतिक उपादानों की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर समझने लगेगा
- जङ-चेतन संसार के सुख में अपना सुख मानने लगेगा
- भावात्मक दृष्टि से प्रकृति के साथ अभेद की स्थिति में आ जाएगा
- जगत् का सच्चा प्रतिनिधि हो जाएगा
- काली छपी पंक्ति से लेखक का आशय है कि भक्ति-
- धर्म का वह स्वरूप है, जिसके आचरण में व्यक्ति सदैव आनन्द का अनुभव करता है
- धर्म का वह स्वरूप है जो व्यक्ति को चिरकाल तक आनन्द मे डुबोए रहता है
- ऐसी विचारधारा है जो व्यक्ति को सदैव आनन्दमग्न रखती है
- वह अनुभूति है जिसमें धर्म जैसा शुष्क विषय भी आनन्दायक बन जाता है
(10)
अखिल विश्व आज शान्ति की खोज में भटक रहा है. छोटे से छोटे बङे से बङे राष्ट्र के सामने यही एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि किस प्रकार अविश्वस्त एवं संत्रस्त विश्व में स्थाई शान्ति की स्थापना की जा सकती है. बङे से बङे यूरोपीय राजनीतिज्ञ इस समस्या का हल ढूँढ निकालने की उधेङबुन में लगे हुए हैं. बङे-बङे विशालकाय एवं भव्य प्रासादों में बैठकर इस समस्या पर विचार विनिमय होता है, जोशीले ढंग से तरह-तरह के तर्क-वितर्क उपस्थित किए जाते हैं, पर आज तक इसका कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं निकल सका. बात यह है कि सही लक्ष्य पर पहुँचने के लिए पश्चिम दिशा की ओर कदम बढाना अपने को उपहासास्पद बनाना है. रोग को पूरी तरह से दूर करने के लिए उसको थोङी देर के लिए दबा देना वास्तविक उपचार नहीं कहा जा सकता.उसके लिए रोग पैदा करने वाले कारणों को भली-भाँति समझना और उनका समूल नाश करना ही एकमात्र उपाय है. इसी प्रकार शान्ति प्राप्त करने के लिए और प्राप्त शान्ति को सुरक्षित एवं स्थायी बनाए रखने के लिए शान्ति को नष्ट करने वाले मूल कारणों को नष्ट करना होगा और उन कारणों में सर्वप्रमुख कारण हैं हिंसात्मक भावना को प्रोत्साहन देना. आजतक प्रायः सभी राजनीतिज्ञ काँटे से काँटा निकालने की नीति की दुहाई देकर युद्ध रोकने के लिए युद्ध को ही एक मात्र उपाय समझकर तरह-तरह की योजनाएँ प्रस्तुत करते रहे हैं, पर वास्तविक बात यह है कि कीचङ से कीचङ धोने की नीति अपनाकर कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र आजतक सफलता प्राप्त कर सकने में सफल नहीं रहा है. यदि हम शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं. तो हमें शान्तिमय उपायों का ही अवलम्बन करना होगा.
प्रश्न
- प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष आज महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि-
- विश्व सुख-शान्ति से प्रशासन कैसे चलाए?
- प्रत्येक देश आपसी तनाव कैसे कम करे
- किस प्रकार विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना की जाए?
- प्रत्येक राष्ट्र किस प्रकार रंग-भेद की नीति से मुक्त हो?
- बङे-बङे राजनीतिज्ञ विशालकाय-भव्य प्रासादों में-
- बैठकर एक-दूसरे पर दोषोरोपण करते हैं
- बैठकर विचार-विनिमय एवं तर्क-वितर्क प्रस्तुत करते हैं
- बैठकर सुझाव देते हैं
- अन्दर बैठकर आमोद-प्रमोद करते हैं
- विश्वशान्ति का सन्तोषजनक समाधान-
- आज तक नहीं निकल सका है
- निकाला जा सका है
- निकालने में तल्लीन है
- ढूँढने में जुटे हैं
- पश्चिम दिशा की ओर कदम बढाना-
- लक्ष्य के लिए मिथ्या आशावान बनना है
- व्यर्थ में दूसरों का आभारी होना है
- हमें अपने लक्ष्य को भूल जाना है
- लक्ष्य पर पहुँचने के लिए खुद को हास्यास्पद बनाना है
- रोग को थोङी देर के लिए दबा देना-
- उसका एकमात्र उपचार नहीं है
- उसका वास्तविक और सही उपचार है
- उसका वास्तविक उपचार नहीं कहा जा सकता है
- इसके अतिरिक्त कोई उपचार हो ही नहीं सकता है
- शान्ति को सुरक्षित एवं स्थायी बनाए रखने के लिए –
- स्वार्थ को छोङना होगा
- उसे नष्ट करने वाले मूल कारणों को दूर करना होगा
- आपसी ऊँच-नीच के भेद –भावों को मिटाना होगा
- समाज को शिक्षित संस्कारी बनाना होगा
- अशान्ति के मूल कारणों में-
- प्रमुख कारणों हिंसात्मक भावना को प्रोत्साहन देना है
- संघर्ष की भावना को प्रोत्साहित करना है
- स्वदेशी भावना का सर्वथा अभाव है
- बैर-वृत्ति को प्रोत्साहित अभाव है
- राजनीतिज्ञों की नीति-
- अपने हथियारों की खपत करना है
- छोटे देशों के कार्य में काँटा बोना है
- काँटो से काँटा निकालना है
- प्रत्येक के लिए काँटो की बाङ बनाना है
- कीचङ से कीचङ धोने की नीति से-
- प्रत्येक राष्ट्र को सफलता मिली है
- हर राष्ट्र उसके सुन्दर परिणाम भोग रहा है
- कोई भी राष्ट्र आज तक सफल नहीं हुआ है
- प्रायः सभी राष्ट्र प्रयासरत् हैं
- उपर्युक्त अनुच्छेद का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक होगा-
- युद्ध की अनिवार्यता
- राजनीतिज्ञों की चिन्ता
- अखिल विश्व
- विश्व शान्ति
(11)
परमात्मा ही जगत् का आधार व उसका नियंता है, उसकी प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है. सत्य व अहिंसा उसकी प्राप्ति के प्रमुख साधन हैं. सभी जीव ईश्वर की संतान होने के कारण मूलतः समान हैं.और उनकी सेवा ही भगवान की सच्ची सेवा व उसकी उपासना है, जिसके द्वारा उसकी प्राप्ति हो सकती है. ये प्रायः वे सिद्धान्त हैं जो सभी धर्मों का सार है. ये सभी सिद्धान्त अति प्राचीनकाल से सभी धर्मों में चले आ रहे हैं. सभी धर्मों द्वारा इनका प्रचार रखने वालों के अतिरिक्त सर्वसाधारण के लिए उनमें कोई आकर्षण नहीं रहा है और इसका प्रयोग मुख्यतः मनुष्य के वैयक्तिक जीवन में ही हुआ है.गाँधीजी ने धर्म सर्वसाधारण की वस्तु बनाया और उसके मूल सिद्धान्तों का पुनः प्रतिपादन करते हुए इस बात पर बल दिया कि धर्म व उसके सिद्धान्त केवल व्यक्तिगत जीवन की ही वस्तु नहीं हैं, वरन् उनका सफल प्रयोग सार्वजनिक जीवन में भी किया जा सकता है. इसी प्रकार संसार के झगङों से दूर जाकर भगवान् की उपासना करके उसको प्राप्त करने की बात सदा से कही जाती रही थी पर गांधीजीने संसार को यह बताया कि ईश्वर की सच्ची उपासना संसार में रहकर ईश्वर की संतान मनुष्य जाति की सेवा करके भी की जा सकती है और उसी के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है. उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण ही इसलिए किया कि वे मनुष्य जाति की सेवा कर सकें और उसके द्वारा ईश्वर की प्राप्ति कर सकें.
प्रश्न
- उपर्युक्त गधांश में परमात्मा को इस जगत का………. कहा गया है.
- सृष्टिकर्ता और बिध्वंसक
- आधार व उसका नियंता
- प्राणिपालक
- जगतपालक
- दीनदयाल
- गधांश के अनुसार ईश्वर की प्राप्ति के प्रमुख साधन हैं-
- तप और यज्ञ
- पूजा और दान-दक्षिणा
- मन्दिर में ध्यान लगाना
- सत्य और अहिंसा
- ब्राह्माणों को भोजन कराना
- गधांश के अनुसार सभी जीव मूलतः हैं, क्योंकि-
- उनमें रक्त, मांस आदि होता है
- उनमें जैविक लक्षण होते हैं
- वे भोजन अवश्य करते हैं
- वे ईश्वर के भक्त होते हैं
- सभी ईश्वर की संतान हैं
- ईश्वर की सच्ची सेवा व उपासना है-
- मन्दिर में पूजा करना
- साधु-ब्राहमाणों की सेवा करना
- तप और यज्ञ करना
- सभी जीवों की सेवा करना
- इनमें से कोई नहीं
- प्रायः सभी धर्मों का सार है-
- सभी जीवों को ईश्वर की सन्तान मानकर ,उनसे प्रेम करना
- गंगा स्नान करना
- यज्ञ और दान करना
- जप/तप करना
- उपर्युक्त सभी
- सर्वसाधारण के लिए मूलधर्म में कोई आकर्षण नहीं रहा है, क्योंकि-
- धर्म का प्रयोग मुख्यतः मनुष्य के वैयक्तिक जीवन में ही हुआ है
- धर्म का प्रयोग मुख्यतः मनुष्य के सार्वजनिक जीवन में ही हुआ है
- कुछ लोग धर्म के नाम पर ठगी करते हैं
- गरीब व्यक्ति यज्ञादि नहीं कर पाता है
- उपर्युक्त में से कोई नहीं
- गांधीजी ने धर्म को……. बनाया.
- पढे-लिखे युवक-युवतियों के लिए
- संभ्रान्त व्यक्तियों के लिए
- किसान-मजदूरों के लिए
- सर्वसाधारण की वस्तु
- इनमें से कोई नहीं
- गांधीजी के अनुसार ईश्वर सच्ची उपासना-
- संसार त्यागकर तप द्वारा की जा सकती है
- संसार में ही रहकर मानव सेवा द्वारा की जा सकती है
- मन्दिर बनवाकर की जा सकती है
- यज्ञ करके की जा सकती है
- उपर्युक्त सभी
- गांधीजी ने राजनीति में पदार्पण किया, क्योंकि-
- वे देश को आजाद करा सकें
- वे अंग्रेजों को देश से भगा सकें
- वे नेहरू जी को प्रधानमन्त्री बना सकें
- वे मानव जाति की सेवा कर सकें
- इनमें से कोई नहीं
- उपर्युक्त गधांश में लेखक ने पाठक को सभी…….. बताया है.
- धर्मों का सार
- हिन्दू रीति-रिवाज
- कर्मयोग
- सम्प्रदायों का सार
- उपर्युक्त सभी
उत्तरमाला
1. (A) 2. (D) 3. (C) 4. (B) 5. (C) 6. (D) 7. (C) 8. (B) 9. (A) 10. (B) 11. (B) 12. (C) 13. (D) 14. (C) 15. (D) 16. (A) 17. (B) 18. (C) 19. (D) 20. (C) 21. (A) 22. (A) 23. (A) 24. (D) 25. (D) 26. (A) 27. (D) 28. (C) 29. (B) 30. (C) 31. (B) 32. (A) 33. (C) 34. (C) 35. (B) 36. (A) 37. (D) 38. (A) 39. (B) 40. (B) 41. (D) 42. (A) 43. (B) 44. (C) 45. (D) 46. (A) 47. (B) 48. (A) 49. (B) 50. (C) 51. (D) 52. (A) 53. (C) 54. (C) 55. (D) 56. (D) 57. (D) 58. (C) 59. (B) 60. (A) 61. (D) 62. (C) 63. (B) 64. (A) 65. (C) 66. (C) 67. (D) 68. (B) 69. (D) 70. (E) 71. (D) 72. (A) 73. (A) 74. (D) 75. (B) 76. (D) 77. (A)